दिनेश प्रताप सिंह
जैसा विचार है वैसा ही परिणाम भी होता है। यह बात सर्वविदित है। अच्छे लोग इसका पालन भी करते हैं। शुद्ध और सात्विक विचार रखकर व्यक्ति और समाज का भला करते हैं। पर कुटिल व खलगामी ठीक इसके विपरीत आचरण करते हैं। उनका विचार तो कलुषित होता है, लेकिन दिखावा सदाचारी का करते हैं, इस कारण परिणाम भी दूषित ही मिलता है। बात मैं अरविंद केजरीवाल की कर रहा हूं। विचार टकराव का, भाषण मेल मिलाप का।
पिछले सप्ताह दिल्ली के मुख्यमंत्री ने दो मुद्दे उठाए और शोर इस कदर मचाया कि केंद्र की सरकार उनको फिर से काम नहीं करने दे रही है। एक विषय एलजी के अधिकार से संबंधित विधेयक का था, दूसरा मुख्यमंत्री हर दरवाजे राशन का। दोनों मुद्दों पर टकराव की पटकथा खुद अरविंद केजरीवाल ने लिखी। इसके पीछे वही दूषित विचार। इस परिणाम की चाहत में उठाया गया कदम कि केंद्र जब नियमसम्मत निर्णय करेगा, तो फिर से जनता के सामने रोने-धोने का अवसर मिल जाएगा। मीडिया में प्रधानमंत्री और लेफ्टिनेंट गवर्नर के खिलाफ जहर उगलने की मंशा पूरी हो जाएगी। गर्मी आने से पहले ही हो रही पानी की किल्लत पर उठने वाली दिल्ली की जनता की आवाज इस शोरगुल में दबकर रह जाएगी।
अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में शासन करते अब छह साल से अधिक हो गए। इसलिए उन्हें नौसिखिया कोई नहीं कह सकता। उन्हें अपने अधिकार के साथ-साथ एलजी के अधिकार की भी भली-भांति जानकारी है। उन्हें यह भी पता है कि दिल्ली एक केंद्रशासित प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी है। मुख्यमंत्री बनते ही उन्हें गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 पढ़ने को जरूर दिया गया होगा। इस एक्ट के पार्ट 2 के 9 नंबर के बिंदु पर एल जी के अधिकार के बारे में स्पष्ट लिखा हुआ है “ दि लेफ्टिनेंट गवर्नर में सेंड मेसेजेज टू दि असेम्बली वेदर विथ रिस्पेक्ट टू ए बिल देन पेंडिंग इन दि असेम्ब्ली ऑर अदर वाइज, एंड व्हेन ए मेसेज इज सो सेंट दि असेम्ब्ली शैल विथ आल कन्वीनिएंट डिस्पैच कंसीडर एनी मैटर रिक्वायर्ड बाई दि मैसेज टू बी टेकेन इन टू कन्सिडरेशन” .यानी एलजी साहब जब भी उचित समझें विधानसभा को किसी पेंडिंग या कोई अन्य विधेयक के बारे में हस्तक्षेप कर सकते हैं और विधानसभा को एलजी के प्रस्ताव पर विचार करना ही होगा। क्या यह एक्ट अरविंद केजरीवाल को ध्यान में रखकर बनाया गया था। 1991 से लेकर 2015 तक इन प्रावधानों पर क्या किसी भी मुख्यमंत्री ने सवाल उठाया। नहीं! अरविंद केजरीवाल ने सवाल एलजी के अधिकारों पर ही नहीं उठाया है, बल्कि संसद और संविधान पर भी उठाया है जहां और जिसके तहत यह एक्ट पास हुआ।
इसी एक्ट के बिंदु नंबर 24 में लिखा है- “व्हेन ए बिल हैज बिन पास्ड बाई दि लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली, इट शैल बी प्रजेंटेड टू दि लेफ्टिनेंट गवर्नर एंड दि लेफ्टिनेंट गवर्नर शैल डिक्लेयर इदर दैट ही एसेंट्स टू दि बिल ऑर दैट ही विथोल्ड्स एसेंट देयर फ्रॉम ऑर दैट ही रिजर्व्स दि बिल फॉर दि कन्सिडरेशन ऑफ़ दि प्रेसिडेन्ट।“ यानी एलजी के पास यह संसद से पारित अधिकार है कि वह विधानसभा से पास किसी विधेयक को अपनी संस्तुति दे सकते हैं, कानून के खिलाफ या अनुचित विधेयक को रोक भी सकते हैं या उसपर विचार के लिए राष्ट्रपति को भेज भी सकते हैं। गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 में एलजी को कुछ विशेषाधिकार भी दिए गए हैं। जैसे विधानसभा के अधिकार के बाहर यदि कोई कानून या न्यायिक आदेश की जरूरत हो तो एलजी अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकते हैं और इस संबंध में एलजी का आदेश अंतिम होगा।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हमेशा यह तास्सुर देते हैं कि एलजी जबर्दस्ती उनसे फाइल मंगवाते हैं, मनमाने ढंग से उसे लटकाए रखते हैं और उनके अधिकारों का हनन करते हैं। इस मामले में मुख्यमंत्री अपने विधायकों के साथ एलजी हाउस से लेकर सड़क तक धरना-प्रदर्शन कर चुके हैं। जबकि गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 के अनुसार मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य है कि हर उस विधायी निर्णय या विधेयक को एलजी के पास उनकी सहमति के लिए भेजें जो दिल्ली के प्रशासन व शासन व्यवस्था के लिए किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री का यह भी कर्तव्य है कि दिल्ली सरकार के प्रशासन से संबंधित हर विधेयक या प्रस्ताव का प्रारूप पहले एलजी साहब के पास भेजें। एक्ट के अनुसार मुख्यमंत्री को मांगे जाने पर वे सूचनाएं भी एलजी कार्यालय को भेजनी जरूरी हैं, जिसमें किसी मंत्री ने निर्णय लिया हो लेकिन उसे मंत्रिपरिषद से पास ना करवाया हो।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 के ये प्रावधान खटकते रहे हैं। प्रकृति व स्वभाव से निरंकुश और खुद के अलावा सब बेकार की उनकी सोच ही मुख्य समस्या है। यही कारण है कि दिल्ली छह साल बाद भी पानी और बिजली के सवाल से आगे नहीं बढ़ पाई। पानी और बिजली की सहूलियतों से ज्यादा उनका प्रचार है और केजरीवाल माॅडल गवर्नमेंट का स्टाइल ऑफ फंक्शनिंग भी यही है। इस सरकार ने अपने हर फेल कार्यक्रम की भरपाई करोड़ों रुपये के विज्ञापन से की है। कोरोना काल में दिल्ली उजड़-सी गई, दिल्ली सरकार अपने अस्पतालों में बदइंतजामी कर मरीजों को छोड़ भाग खड़ी हुई। यदि गृहमंत्री अमित शाह अपने हाथों में कमान ना लेते तो दिल्ली के हालत न्यूयार्क और लंदन से भी बदतर होते। लेकिन आज केजरीवाल सरकार विज्ञापन में दावा करती है कि कोरोना में दिल्ली सरकार के कामकाज का माॅडल देश-दुनिया में लोग अपना रहे हैं। झूठ की यह पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है।
दिल्ली के एलजी के अधिकार संबंधी जो बिल संसद में पेश किए गए हैं, उसमें चार बातों का जिक्र है। जैसे सरकार का अर्थ है उपराज्यपाल (एलजी)। विधानसभा द्वारा बनाए जाने वाले किसी भी कानून में निर्दिष्ट सरकार का अर्थ उपराज्यपाल (एलजी) होगा। विधेयक एलजी को उन मामलों में भी विवेकाधीन शक्तियां देता है कि जहां दिल्ली की विधान सभा को कानून बनाने का अधिकार है। मंत्रिपरिषद (या दिल्ली मंत्रिमंडल) द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय के लागू होने से पहले एलजी को अपनी राय देने के लिए आवश्यक रूप से एक अवसर प्रदान किया जाए। प्रशासनिक निर्णयों से संबंधित संशोधन यह भी कहता है कि विधानसभा राजधानी के दैनिक प्रशासन के मामलों पर विचार करने या प्रशासनिक निर्णयों के संबंध में खुद को सक्षम करने के लिए कोई नियम एलजी की राय के बिना नहीं बनाएगी।
लोग यह सवाल कर सकते हैं कि जब गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 में मुख्यमंत्री और एलजी के अधिकार व कर्तव्य स्पष्ट रूप से वर्णित हैं, तो नए विधेयक की जरूरत केंद्र को क्यों आन पड़ी। जवाब वहीं मुख्यमंत्री की बदनियती में छुपा है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली को लेकर एक फैसला दिया था उसके अनुसार पुलिस, पब्लिक ऑर्डर और भूमि को छोड़कर दिल्ली सरकार को अपने अन्य फैसले के लिए एलजी की पूर्वानुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी, लेकिन साथ में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि दिल्ली सरकार को अपने हर फैसले की जानकारी एलजी को देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि एलजी किसी अन्य राज्य के गवर्नर की तरह काम नहीं करेंगे, लेकिन दिल्ली के लिए वे प्रशासक होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल सरकार को यह ताकीद भी की थी कि वे खुद को कोई आम राज्य की सरकार की तरह ना देखे, बल्कि यह दिमाग में रखे कि यह एक केंद्रशासित प्रदेश है।
अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को अपनी जीत की तरह प्रचारित किया और फिर अपनी आदत के अनुसार मनमाने ढंग से काम करना शुरू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद दिल्ली सरकार ने किसी भी फैसले के लागू होने से पहले एलजी को सूचित करना बंद कर दिया। यहीं नहीं कार्यकारी मामलों की फाइलें भेजना भी बंद कर दिया। एक तरह अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की आड़ में गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 में दिए एलजी के अधिकार पर ताला लगा दिया। क्या यह संविधान और संसद का अपमान नहीं है?
केजरीवाल की मनमानी और नियम-कानून का माखौल उड़ाने की उनकी आदत का जीता-जागता सबूत है मुख्यमंत्री घर-घर राशन योजना का ऐलान। जिसे 24 मार्च से लागू करने का ढिंढोरा पीटा गया। यह जानते हुए भी कि यह योजना गैर कानूनी और उनके अधिकार के बाहर है इसके लिए केजरीवाल सरकार ने टेंडर जारी कर दिए। जब केंद्र सरकार ने उनकी गलती का एहसास कराकर इस योजना पर रोक लगाई तो आम आदमी पार्टी ने अपने ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर आरोप लगाया है कि मोदी सरकार राशन माफिया खत्म करने के खिलाफ है। इसलिए इस योजना पर रोक लगा रही है। मीडिया में तुरंत यह चलवाया गया कि मोदी सरकार गरीबों को उनके घर तक अनाज पहुंचाने से दिल्ली सरकार को रोक रही है। पर लोगों को तब तक यह मालूम नहीं हुआ कि दरअसल नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत केंद्र सरकार, राज्यों को जो राशन मुहैया कराती है, उसके वितरण में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इसे कोई भी राज्य सरकार अपने मुख्यमंत्री या किसी अन्य नाम से लागू नहीं कर सकती। जब केजरीवाल इस मामले में एक्सपोज्ड हो गए तो अब यह राग अलाप रहे हैं कि वे अपना नाम हटा कर योजना चलाने को तैयार है।
क्या एक मुख्यमंत्री को अपने संवैधानिक जिम्मेदारी का अहसास पहले नहीं था। उन्हें अपनी जिम्मेदारी और अपनी सीमाएं मालूम हैं, लेकिन हर बार उसका उल्लंघन जान बूझकर राजनीतिक लाभ के लिए करते रहे हैं। इसमें जनता का नुकसान बार-बार होता रहा है और इस पद पर केजरीवाल के रहने तक होता रहेगा, क्योंकि ना तो यह केजरीवाल की पहली भूल है ना यह आखिरी होगी।