विश्व गौरैया दिवस (20 मार्च) पर विशेषयोगेश कुमार गोयलघर-आंगन में या खिड़की-दरवाजे पर बेधड़क फुदकने और चहकने वाली गौरैया आजकल हमें अपने आसपास नजर नहीं आती। छोटे आकार के इस खूबसूरत से पक्षी का बसेरा हमारे घरों तथा आसपास ही पेड़-पौधों पर हुआ करता था लेकिन अब यह पक्षी विलुप्ति के कगार पर है। इसकी आवाज सुनने को कान तरस जाते हैं। स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह नन्हीं सी प्यारी सी चिड़िया करीब दो दशक पहले तक हर कहीं झुंड में उड़ती देखी जाती थी लेकिन अब यह एक संकटग्रस्त और दुर्लभ पक्षी की श्रेणी में आ गई है। भारत के अलावा यूरोप के कई हिस्सों में भी इनकी संख्या काफी कम रह गई है। तेजी से लुप्त होती गौरैया को नीदरलैंड में तो ‘दुर्लभ प्रजाति’ की श्रेणी में रखा गया है। जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, चेक गणराज्य इत्यादि कुछ अन्य देशों में भी गौरैया की संख्या तेजी से घट रही है। भारतीय उपमहाद्वीप में गौरैया की कुल छह प्रजातियां हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, डैड सी अथवा अफगान स्क्रब स्पैरो, ट्री स्पैरो अथवा यूरेशियन स्पैरो, सिंध स्पैरो तथा रसेट अथवा सिनेमन स्पैरो पाई जाती हैं।पर्यावरण संरक्षण पर हिन्दी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के मुताबिक भारत में गौरैया की आबादी में 60 फीसदी के आसपास कमी आई है। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण के अनुसार गौरैया की संख्या आंध्र प्रदेश में करीब 80 फीसदी तथा केरल, गुजरात, राजस्थान जैसे राज्यों में 20 फीसदी तक कम हो चुकी है। इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में इनकी संख्या 70 से 80 फीसदी तक कम होने का अनुमान है। केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी मानना है कि देशभर में गौरेया की संख्या में निरन्तर कमी आ रही है। पश्चिमी देशों में भी इनकी आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। दुनियाभर में गौरैया की कुल 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से पांच भारत में मिलती हैं लेकिन अब इनके अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स’ ने भारत सहित दुनिया के अन्य हिस्सों में भी कई अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है। ‘रेड लिस्ट’ में उन जीव-जंतुओं या पक्षियों को डाला जाता है, जिन पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा होता है।गौरैया की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए गौरैया के अलावा शहरी वातावरण में रहने वाले आम पक्षियों के संरक्षण के प्रति भी जागरुकता लाने के उद्देश्य से वर्ष 2010 से प्रतिवर्ष 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया जाता है। गौरैया की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए दिल्ली सरकार द्वारा इसे वर्ष 2012 में राज्य-पक्षी घोषित कर दिया गया था, बिहार का भी यह राजकीय पक्षी है। पर्यावरणविदों का कहना है कि अगर गौरैया के संरक्षण के लिए समय रहते ठोस प्रयास नहीं किए गए तो संभव है कि नन्हीं सी चिडि़या गौरैया इतिहास का प्राणी बनकर रह जाए और हमारी आने वाली पीढि़यों को इसके दर्शन केवल गूगल या किताबों में ही हो पाएं। दरअसल हम पर्यावरण के साथ जिस तरह का खिलवाड़ कर रहे हैं, उसी का नतीजा है कि हमने धरती, जल, वायु प्रकृति के इन सभी तत्वों को इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि इसका दुष्प्रभाव अब मनुष्यों के अलावा धरती पर विद्यमान तमाम जीव-जंतुओं और पशु-पक्षियों को भुगतना पड़ रहा है। पिछले दो-ढ़ाई दशकों में हमारी जीवनशैली में बहुत बदलाव आया है। अपने निहित स्वार्थों के चलते हमने जंगल उजाड़ दिए, प्रकृति का संतुलन चक्र बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे जीव-जंतुओं और पक्षियों की अनेक प्रजातियों को मारकर, उनका शिकार करके या उनके आशियाने उजाड़कर उनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है। एक समय था, जब सुबह आंख खुलते ही गौरैया की चहचहाहट सुन हमारे दिलोदिमाग को एक अजीब सा सुकून मिलता था किन्तु अब यह चहचहाहट कहीं गायब हो गई है।भोजन तथा पानी की कमी, पक्के मकान बनने से घोसलों के लिए उचित स्थानों की कमी, तेजी से कटते पेड़-पौधे, हमारी बदलती जीवनशैली, मोबाइल रेडिएशन का दुष्प्रभाव, तापमान में लगातार होती बढ़ोतरी इत्यादि कई ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो गौरैया की विलुप्ति का कारण बन रहे हैं। खेतों में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से भी इनके अस्तित्व पर काफी बुरा असर पड़ रहा है। पर्यावरणविदों के मुताबिक गौरेया काकून, बाजरा, धान, पके हुए चावल के दाने इत्यादि खाती है किन्तु अत्याधुनिक शहरीकरण के कारण उसके प्राकृतिक भोजन के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं, उनके आशियाने उजड़ रहे हैं। पेड़-पौधे लगातार तेजी से कट रहे हैं और नए जमाने के बन रहे घरों में गौरैया के घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही है। शहरों की बात छोडि़ये, अब ग्रामीण इलाकों में भी घर बनाने के तरीके बदल गए हैं, जिससे गौरैया के लिए घोंसले बनाने की जगह खत्म सी गई हैं। अब शहर हों या गांव, हर कहीं हजारों की संख्या में मोबाइल फोन के लिए बड़े-बड़े टावर लगे हैं। इन टावरों से निकलने वाला रेडिएशन गोरैया की लगातार घटती संख्या का सबसे बड़ा जिम्मेदार कारण है। दरअसल इन टावरों से निकलने वाली इलैक्ट्रो मैग्नेटिक किरणें इस छोटे से पक्षी को उत्तेजित करती हैं, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता बहुत कम हो जाती है और वह दिशाभ्रम की शिकार भी होती है। इससे सीधे-सीधे उनके अस्तित्व पर बहुत बड़ा असर पड़ा है। गौरैया की आबादी घटने का एक बड़ा कारण यह भी है कि कई बार उनके घोंसले सुरक्षित स्थानों पर नहीं होने के कारण कौए तथा दूसरे हमलावर पक्षी उनके अंडों तथा बच्चों को खा जाते हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार गौरैया अधिकांशतः छोटे-छोटे झाड़ीनुमा झुरमुट वाले वृक्षों पर रहती हैं लेकिन विकास की अंधी दौड़ में हर तरह के पेड़ों का तेजी से सफाया कर दिया गया है, जिससे गौरैया सहित अन्य पक्षियों के आशियाने भी उजड़ गए हैं। पर्यावरणविद कहते हैं कि हम आजकल अपने घर-आंगन में जो पेड़-पौधे लगाते हैं, उनमें से करीब नब्बे फीसदी विदेशी होते हैं, जिन पर गौरैया अपना घोंसला नहीं बना सकती।महज 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी और 25 से 35 ग्राम वजनी दिल को मोह लेने वाली भूरे-ग्रे रंग, छोटी पूंछ और मजबूत चोंच वाली नन्हीं सी गौरैया एक समय में तीन या उससे ज्यादा अंडे देती है। पैदा होने के बाद शुरूआती कुछ दिनों में इसके बच्चों का भोजन केवल कीड़े-मकोड़े ही होते हैं लेकिन अब जिस प्रकार खेतों में बहुत बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का उपयोग हो रहा है, उससे खेतों में कीड़े-मकौड़े नष्ट हो जाते हैं। ऐसे में गौरैया सहित दूसरे अनेक पक्षियों को भी उनका यह आहार नहीं मिल पाता। नतीजा, पर्याप्त भोजन उपलब्ध न होने के कारण भी दुनिया भर में पक्षियों की अनेक प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। गौरेया प्रायः झुंड में ही रहती हैं और भोजन की तलाश में यह झुंड अक्सर दो मील तक की दूरी तय करता है। गौरैया 20 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उड़ान नहीं सकती, इसलिए विशेषकर महानगरों में, जहां कहीं गारैया का अस्तित्व है, वहां भी ऊंची-ऊंची बहुमंजिला इमारतें खड़ी होने के कारण उनके दर्शन दुर्लभ हैं।बहरहाल, प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में हमारी सहभागी रही गौरेया के संरक्षण के लिए आज लोगों में बड़े स्तर पर जागरुकता पैदा किए जाने की सख्त जरूरत है। दरअसल बहुत बार देखा जाता रहा है कि लोग अपने घरों में गौरैया के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। पक्षी विज्ञानी कहते हैं कि गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए, जहां वे आसानी से घोंसले बना सकें और घरों में बने इन घोसलों में उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। प्रकृति संतुलन तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए आज समय की सबसे बड़ी मांग है कि हम पक्षियों के लिए वातावरण को उनके प्रति अनुकूल बनाने में सहायक बनें अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब गौरैया सहित और भी बहुत सारे पक्षी गिद्ध तथा मॉरीशस के ‘डोडो’ पक्षी की भांति पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगे। इसलिए हम सभी को मिलकर गौरैया सहित तमाम पक्षियों के संरक्षण के लिए उचित पहल करनी ही होगी। पक्षी विज्ञानी कहते हैं कि जबतक लोग स्वयं गौरैया के संरक्षण के लिए जागरूक नहीं होंगे, तब तक इनका संरक्षण किया जाना संभव नहीं है।
2021-03-19