ऋतुपर्ण दवे
महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर यूँ तो शायद ही कोई दिन जाता हो जब विश्व पटल पर कहीं न कहीं गंभीर चर्चा न होती हो, लेकिन नतीजे वैसे क्यूँ नहीं दिखते? यह भी सच है कि आधी आबादी की पूरी आजादी को लेकर दुनिया भर में काफी कुछ लिखा, कहा, समझा और समझाया जा रहा है परन्तु कथनी और करनी में खास अन्तर क्यूँ नहीं दिखता? बेशक महिलाओं ने काफी तरक्की की है, हर क्षेत्र में वे आगे बढ़ गई हैं। अंतरिक्ष से लेकर पहाड़ और खेलों से लेकर प्रशासन व राजनीति में दबदबा भी बढ़ा है लेकिन क्या यह काफी है? उससे भी बड़ा सवाल यह कि अपने दमखम पर तमाम क्षेत्रों में आगे बढ़ी महिलाओं को छोड़ दें तो आबादी के लिहाज से उसी अनुपात में यह आम या पुरुषों के बराबर क्यों नहीं है?
आज अहमदाबाद की आयशा का बनाया वीडियो बार-बार सामने कौंध रहा है। उसके आखिरी में कहे एक-एक शब्द सवालों की बौछार कर रहे हैं। आयशा के सच ने न केवल उसके दर्द को उजागर किया बल्कि मरने के बाद भी इतना कुछ छोड़ दिया जिसपर काफी समय तक कहा, सुना और लिखा जा सकता है। आयशा के आखिरी शब्द जैसे दिमाग के कम्प्यूटर की सी ड्राइव में जा समाए हैं और गूँजते रहते हैं- “अगर वह मुझसे आज़ादी चाहता है तो उसे आजादी मिलनी चाहिए। मेरी जिंदगी यहीं तक है। मैं खुश हूं कि मैं अल्लाह से मिलूंगी। मैं उनसे पूछूंगी कि मैं कहां गलत थी? मुझे अच्छे मां-बाप मिले। अच्छे दोस्त मिले। हो सकता है कि मेरे साथ या मेरी नियति में कुछ गलत रहा हो। मैं खुश हूं। मैं संतुष्टि के साथ गुडबॉय कह रही हूं। मैं अल्लाह से दुआ करूंगी कि मुझे फिर कभी इंसानों की शक्ल नहीं देखनी पड़े।”
सच तो यह है कि ये शब्द नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के जरूरत की प्रासंगिकता पर मुहर है। शायद आयशा का सच भले ही उसपर हो रहे जुल्मों की इन्तहा हो लेकिन तरक्की करती दुनिया की बड़ी और खरी हकीकत भी है। बस इसी हकीकत को समझने और सुलझाने का मकसद ही महिला दिवस है।
यह भी बड़ा सच है कि भारत समेत अनेकों देश में आज भी महिलाएँ अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हैं। इन अधिकारों का अहसास कराने और इन्हें पाने का संघर्ष और मुहिम ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का मकसद है। किसे नहीं पता कि लिंगभेद का शिकार सबसे ज्यादा आज भी महिलाएं ही हैं। लड़कियों को इस दौर में भी पढ़ाई से दूर रखा जाता है। जो महिलाएँ घर, परिवार के प्रोत्साहन और संघर्ष से किसी कदर आगे तक निकल जाती हैं तो उनकी कभी पदोन्नति में बाधा तो कभी कार्यस्थल पर शोषण के इतने उदाहरण मिलते हैं जिसकी गिनती करते-करते थक जाएँगे। इसके अलावा भारत में ही कुपोषण को लेकर महिलाओं का आँकड़ा न केवल डराता है बल्कि हैरान करता है। मातृत्व बोझ से लदी कुपोषित महिलाएँ हाड़ तोड़ मेहनत कर बच्चे और परिवार का बोझ ढोने को किस तरह मजबूर हैं। पिछड़े देशों की तस्वीरें तो और भी भयावह हैं।
आर्यों के प्रारम्भिक समाज में नारी को जितनी स्वतंत्रता और खुलापन हासिल था, उतना बाद के किसी काल में नहीं रहा। वैदिक काल में बहुत सी विदुषी स्त्रियां हुई हैं जैसे अपाला, घोषा, विश्ववारा, सरस्वती, लोपामुद्रा आदि। इन्होंने कई सूक्तों की रचना ऋग्वेद में की है। तब सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में स्त्रियाँ बिना किसी प्रतिबन्ध के हिस्सा लेती थीं। उस काल की नारी पुरुषों के साथ यज्ञ, सभा, समिति एवं गोष्ठी में सम्मिलित होती थीं। ऋग्वैदिक काल में नारी हर तरह से पुरुषों के समकक्ष थीं।
इसी तरह मनु स्मृति में भी श्लोक 3/56 में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रिया।।“ अर्थात जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती, उनका सम्मान नहीं होता है, वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। जबकि श्लोक 3/57 में लिखा है- “शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।। यानी जिस कुल, पारिवार में स्त्रियां दुर्व्यवहार के कारण दुखी रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है। इसके विपरीत जहां ऐसा नहीं होता है और स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है। यह भारतीय दर्शन ही है जहाँ महिला सम्मान सबसे अहम है लेकिन आज भी वास्तविकता कुछ और है जो सबके सामने है।
महिला दिवस की की शुरुआत भले ही 113 वर्ष पूर्व 1908 में एक आन्दोलन के दौरान हुई हो लेकिन इसकी जरूरत आज भी वैसी की वैसी है। तब अमेरिका में न्यूयॉर्क की सड़कों पर कामकाजी महिलाओं का बड़ा आंदोलन हुआ था जिसमें करीब 15 हजार महिला शामिल हुईं और काम के समय को कम करने, उचित वेतन और मतदान के अधिकार की माँग की गई। इसे जर्मनी की राजनीतिज्ञ क्लारा जेटकिन ने सम्हाला और बढ़ाया और महिला दिवस बनाने का रूप दिया। जेटकिन 1910 में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में कामकाजी महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में शामिल हुई थीं जिसमें 17 देशों की 100 महिलाएँ आई थी। यहीं पर पहली बार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव भी रखा गया।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को ही मनाए जाने के पीछे रोचक प्रसंग है। हालांकि क्लारा जेटकिन ने शुरुआत करते हुए कोई तारीख तय नहीं की थी। तब साल 1917 में युध्द के दौरान रूस की महिलाओं ने ‘ब्रेड एंड पीस’ यानी खाना और शांति की मांग की थी जो इतना सशक्त रहा कि वहां के सम्राट निकोलस सत्ता छोड़ने को मजबूर हुए और तब बनी अंतरिम सरकार ने महिलाओं को मतदान का अधिकार दे दिया। उस समय वहाँ जूलियन कैलेंडर उपयोग किया जाता था जिसमें तारीख 23 फरवरी थी जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर में यही तारीख 8 मार्च थी। बस तभी से 8 मार्च का दिन अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। हालांकि 1996 से यह दिन हर बार अलग थीम के साथ मनाया जाने लगा जिसमें पहली थीम ‘अतीत का जश्न, भविष्य की योजना’ के साथ मनाया गया और हर वर्ष अलग थीम होने लगी।
इसबार दुनिया में महामारी के रूप में फैले कोविड के दौर में महिला भूमिका पर थीम “वुमेन इन लीडरशिप: अचिविंग एन इक्वल फ्यूचर इन ए कोविड-19 वर्ल्ड” यानी महिला नेतृत्व: कोविड-19 की दुनिया में एक समान भविष्य को प्राप्त करना है जो एक बेहद प्रभावी थीम है। कोविड के दौर में सबने देखा कि किस सेवा भाव से अपने दुधमुँहे बच्चों, घर, परिवार को छोड़ चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं ने विपरीत परिस्थितियों में भी 10-12 घण्टे तक लगातार पीपीई किट पहनकर जबरदस्त सेवाभाव से काम किया और हफ्तों क्वारंटीन रहकर बिना घर गए लोगों को जीवन देने में बराबरी की भूमिका निभाई। यह हर दृष्टि से सम्माजनक और सैल्यूट के लायक है।
कोविड-19 के दौरान वायरस नियंत्रण में महिला नेतृत्व वाले देशों ने न केवल प्रभावी नियंत्रण किया बल्कि इसके प्रसार को भी भरे कोविड काल में काबू कर दुनिया को चौंका दिया। नार्वे, फिनलैण्ड, आइसलैण्ड, डेनमार्क, ताइवान, न्यूजीलैण्ड का उदाहरण सामने है जहाँ महिलाएँ देशों की कमान सम्हाले हुए हैं, जबरदस्त काम कर आधी आबादी का पूरा सच सामने रख दिया। वहीं पड़ोस के पुरुष नेतृत्व वाले मुल्क जैसे आयरलैण्ड, स्वीडन, यूनाइटेड किंगडम जूझते ही रहे।
बेशक जमाना बहुत आगे निकल गया हो लेकिन महिलाओं की हैसियत अभी भी घर सम्हालने और परिवार चलाने से ज्यादा नहीं दिखती। 21 वीं सदी में भी दकियानूसी कहें या ज्यादती, हर कहीं महिलाओं को घरों की चहारदीवारी में ही कैद देखा जा सकता है। कहीं धर्म तो कहीं स्वाभाविमान से जोड़कर इसे बढ़ावा देने की नाकाम कोशिशों ने हमेशा महिला प्रतिभाओं का दमन किया है। इन्हीं सब पर लगाम लगाने और महिलाओं के सम्मान, जागरुकता, अधिकार के लिए ही अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जैसे आयोजन पूरी ईमानदारी से समय, शहर और दकियानूसी सीमाओं को लाँघकर किया जाना जरूरी है ताकि धीरे ही सही, आधी आबादी की पूरी आजादी का सपना सच हो सके।
2021-03-09