विश्व विरासत दिवस (18 अप्रैल) पर विशेष
डाॅ. ललित पाण्डेय
‘‘बात 1917-18 की है जब टेस्सीटोरी ने अपने चारण साहित्य के कार्य को करते हुए कालीबंगा का सर्वेक्षण किया तथा यहॉ से एकत्र किए गए तीन पुरावशेष मुझे दिखाए जिनमें एक मोहर थी, लेकिन मैं पहचान नहीं सका।’’
यह बात ग्रिअर्सन ने लिखी है। इसी बीच टेस्सीटोरी अचानक इटली चले गए तथा इन पुरावशेषों पर लिखी टिप्पणियां हजारीमल वर्डिया को दे गए। दुर्भाग्यवश हजारीमल भी व्यापार के सिलसिले में कानपुर चले गए और कालीबंगा की इस महत्वपूर्ण खोज का पता देर से चला। ग्रिअर्सन ने लिखा है कि टेस्सीटोरी ने इन पुरावशेषों को पूर्वमौर्यकालीन होना बताया था और आज हम इसी बीकानेर में हड़प्पा संस्कृति की खोज के सौ वर्ष मना रहे हैं।
आधुनिक अर्थ में भारत के इतिहास की तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था एवं समाज विज्ञान की दृष्टि से प्रारंभ 17वीं शताब्दी से हुआ जब डच और पुर्तगाली भारत आए और उन्होंने पश्चिमी भारत के समुद्री तट पर स्थित नगरों के वास्तु में रुचि लेनी प्रारंभ की और उनके रेखाचित्र बनाए जो कई मायनों में आज भी उपयोगी हैं। इस समय यूरोपियों की इस प्रतिस्पर्धा में ईस्ट इंडिया कंपनी सफल हुई और उन्होंने भारत के इतिहास, धर्म और संस्कृति में रुचि लेनी शुरू की जिसके परिणामस्वरूप राॅयल एशियाटिक सोसाइटी बनी और अनेक प्राच्यविद्या के विद्वानों ने रुचि ली जिसके फलस्वरूप ब्राह्मी पढ़ी गई और अशोक तथा चंद्रगुप्त जैसे शासकों की जानकारी मिलने से भारतीय इतिहास सिकंदरकालीन हो गया।
शोध-खोज के इस क्रम में पुरातत्व का कार्य भी प्रारंभ हुआ जिसका श्रेय सर अलेक्जेंडर को जाता है। संयोगवश उस समय के सभी प्राच्यविद्या और पुरातत्व के विद्वानों ने हड़प्पा के इतिहास में रुचि लेनी प्रारंभ की। ऐसे पुरातत्वविज्ञानियों में चाल्र्स मैसेन प्रथम थे जिन्होंने हड़प्पा का समीकरण संगला नामक स्थान से किया और इसके पोरस की राजधानी होने की जानकारी दी। इसके बाद एलेक्जेंडर बन्र्स ने हड़प्पा का अध्ययन किया लेकिन उनको कोई सफलता नहीं मिली। अंततः अलेक्जेंडर कनिंघम ने बिना हार माने लगातार 1853, 1856 और.1872-73 का अध्ययन किया, साइट प्लान बनाया और खुदाई भी की जिसमें उन्हें एक मोहर मिली जिसमें वृषभ (जिसको इतिहास और पुरातत्व की पुस्तकों में जेबु अर्थात कूबड़ वाला बैल लिखा गया है) तथा 6 अक्षरों का अंकन था। इसकी रपट भी उसी वर्ष प्रकाशित हुई। इससे इतना तो निश्चित हो गया कि यह मोहर मौर्य काल से पहले की है क्योंकि इस पर खुदे अक्षर न तो ब्राह्मी के थे और न ही खरोष्ठी के सदृश थे। इस तरह से कनिंघम की खोज से उत्तर-पश्चिमी दक्षिणी-पूर्वी एशिया के पंजाब प्रांत में स्थित यह स्थल प्रागैतिहासकाल का एक चर्चित स्थल हो गया। इस संपूर्ण घटनाक्रम से इतना तो निश्चित हो ही गया कि हड़प्पा वृहत्तर सिंधु घाटी की सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थल रहा था तथा इसकी खोज के इतिहास ने इस संस्कृति को पुरातत्व और इतिहास की एक रोचक घटना भी बना दिया।
कनिंघम के बाद हड़प्पा का 1884 जे हर्वे ने (जो स्कूल निरीक्षक पद के अधिकारी थे) सर्वेक्षण किया और उनको एक किसान के खेत से एक अंकित छड़ की आकृति की मोहर मिली। इसी क्रम में 1886 में पुलिस के उप अधीक्षक टी ए ओश्कोन्नोर ने उत्खनन कर एक एक श्रृंगी पशु के अंकन वाली मोहर खोजी। अब बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक के अंतिम वर्ष 1909 में हीरानंद शास्त्री ने हड़प्पा का सर्वेक्षण कर यह रपट प्रस्तुत की कि यहां उत्खनन करना व्यर्थ होगा।
अब तक सर जॉन मार्शल पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक हो गए थे और उन्होंने हेनरी हर्गीव्स को हड़प्पा भेजा। यद्यपि हर्गीव्ज इस कार्य को करने के अनिच्छुक थे, फिर भी उन्होंने एफ मगरी में उत्खनन की सिफारिश की। वर्ष 1916-17 भी एक अत्यंत महत्व का वर्ष था जब दयाराम साहनी ने हड़प्पा का दौरा किया और इसका साइट प्लान बनवाया तथा इसके प्रशासन द्वारा अधिग्रहण की कार्यवाही पूर्ण की। अंततः 1920-21 का ऐतिहासिक वर्ष आ ही गया जब दयाराम साहनी ने हड़प्पा का उत्खनन प्रारंभ किया और इसके ए, बी और एफ मगरी या टिब्बे पर उत्खनन प्रारंभ कराया। उन्होंने 150 मीटर लम्बी तथा 4.9 मीटर चैड़ी खाई लगाई जहां से उन्होंने अन्नागार के प्रमाण एफ मगरी से उद्घाटित किए। इसके अलावा उन्हें एक भवननुमा निर्मित संरचना में विशिष्ट प्रकार की पॉलिश किया प्रस्तर भी मिला जिसे उन्होंने मौर्यकालीन माना। इसके अलावा यहां से कुछ मोहरें भी खुदाई से एकत्र की गईं जिनको उन्होंने पूर्व मौर्यकाल का होना सुनिश्चित किया।
हड़प्पा की खुदाई के अगले वर्ष राखलदास बनर्जी ने मोहनजोदारो में खुदाई का कार्य प्रारंभ कराया, उससे भी अनेक ऐसे भौतिक अवशेष मिले जिनसे हड़प्पा संस्कृति का नगरीय स्वरूप उद्घाटित होने लगा। हड़प्पा की खुदाई भारत और दक्षिण एशिया के लिए तो एक क्रांतिकारी खोज थी ही, साथ ही इसके परिणामों ने यूरोप को भी चकित कर दिया था। इस खुदाई के परिणामों से आश्चर्यचकित होकर होकर 1924 में Illustrated London News ने लिखा कि “The fact that archaeologists in India were confronted with a new civilization comparable in antiquity to the civilizations of Egypt, Mesopotamia and southwest Iran or Elam” (एलम ईरान का प्राचीन नाम है, यह ट्रिगिस नदी के पूर्व में था और यहीं के निवासी अपने युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध थे)। इसी संदर्भ में बी.बी लाल ने केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया में संदर्भ देते हुए लिखा है कि इसी समय जब जॉन मार्शल ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिख रहे थे कि भारत में अभी तक प्राचीन स्मारक के नाम पर राजगृह की साइक्लोपिअन वॉल है जो लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व की है, समय की विडम्वना देखिए कि ठीक इसी समय सर जॉन मार्शल के एक अधिकारी दयाराम साहनी ने मोंटगूमरी, जिसे अब सहीवाल कहा जाने लगा है, में हड़प्पा की खुदाई कर एक ही स्ट्रोक में भारतीय उपमहाद्वीप की सभ्यता की प्राचीनता दो हजार से अधिक प्राचीन सिद्ध कर दी थी।
हड़प्पा की खोज ने सर्वाधिक पुरातत्वविज्ञानियों को अपनी ओर आकृष्ट किया है और अभी तक उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर इसका 26 बार या सीजंस में उत्खनन हो चुका है, इसके बाद मोहनजोदारो का 15 बार हुआ है। हड़प्पा में 1920-21 के बाद 1923-24 में पुनः दयाराम साहनी ने ही उत्खनन कराया, इसी क्रम में 126-27, 27-28, 29-30 से वत्स ने खुदाई कराई तो 1934-35 में निजामी ने, 1935-36 में एम.एस कुरैशी ने, 1936-37 में एच.एल श्रीवास्तव ने, 1937-38, 38-39 और 1940-41 में के.एन शास्त्री ने उत्खनन कराया। शास्त्री ऐसे पहले अन्वेषक थे जिन्होंने यहां से सीमेट्री की खोज की थी जो आर-37 के नाम से प्रसिद्ध है। इस उत्खनन में एच.के बोस उनके सहयोगी थे। इसमें उन्हें एक साथ 50 शवागार मिले। शास्त्री के बाद 1946 में व्हीलर ने भी उत्खनन कराया। हड़प्पा के उत्खनन के परिदृश्य पर बी.बी लाल ने लिखा है कि उत्खननकर्ता के अनुसार हड़प्पा में सर्वप्रथम जहां से बसावट प्रारंभ हुई, वह ‘‘रावी फेज’’ थी जिसका काल निर्धारण 3300-2800 ईपू. किया गया है।
इसके पश्चात लगभग बीस के अंतराल के बाद एम आर मुगल ने खुदाई कराई। उन्होंने यहां 11 interment गाड़ने के स्थानों की खोज की। इसके बाद अभी तक ज्ञात ज्ञान के आधार पर हड़प्पा में आखिरी उत्खनन कार्य 1986 में यूनिवर्सिटी ऑफ केलीफोर्निया, बर्कले हड़प्पा प्रोजेक्ट को प्रारंभ किया गया जो 1990 तक जारी रहा। दिलीप चक्रवर्ती के अनुसार यह उत्खनन एक सोची – समझी योजना के अनुसार मगरी के पूर्व में बसावट के विस्तार को जानने के उद्देश्य से किया गया था जिसके अंतर्गत 150 हेक्टेयर में से 422.244 मीटर का क्षेत्र पश्चिमी मगरी में था और 300 वर्ग मीटर का क्षेत्र रावी के समीप का था।इसके अलावा गत दो-तीन दशकों में भारत में धोलावीरा, फरमाना, राखीगड़ी और बिजोर स्थलों पर कार्य हुआ। इन सभी में राखीगड़ी के उत्खनन से मिले कंकाल का जो जेनेटिक अध्ययन किया गया है, उसने भारतीय इतिहास की अनेक भ्रातियों का निराकरण कर यह प्रमाणित किया है कि भारत का निर्माण आंतरिक देशज समाज द्वारा ही हुआ था।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हड़प्पा संस्कृति के समस्त स्थलों में हड़प्पा एक चमत्कारिक स्थल बन गया है और केवल इस एकमात्र स्थल की खुदाई का इतिहास ही दक्षिण एशिया के पुरातत्व के साथ ही संपूर्ण विश्व के पुरातत्व के विकास के इतिहास का समानार्थी हो गया है।
चलते चलते इस संस्कृति का नामकरण भी गत दशकों से चर्चा में रहा है और इसको इंडस -हकरा, सिंधु सरस्वती आदि नाम देने को लेकर बहस भी हुई है। अतः जहां तक इन नामों का संबंध है तो यह नाम इस संस्कृति के कोर एरिया को ही परिभाषित करते हैं जबकि इसका प्रसार बलूचिस्तान, गुजरात और गंगा-यमुना के कुछ भाग में भी हुआ था, ऐसी स्थिति में इसे हड़प्पा संस्कृति/सभ्यता कहना ही उचित होगा।
इस तरह से हड़प्पा की खोज से भारत ने विश्व को ऐसी संस्कृति दी जिन्होंने क्रीट (यूनान का एक द्वीप) के नोसस नगर के अलावा, जल निकासी की ऐसी व्यवस्था दी जो विश्व में और कहीं नहीं थी। यह सत्य है कि हड़प्पा संस्कृति ने विश्व को गीजा के महान पिरामिड और उर जैसे राजाओं के आलीशान मकबरे नहीं दिए लेकिन दुनिया को जीवन जीने की एक ऐसी व्यवस्था दी जिसकी पालना कर एक संतुलित सामुदायिक या सामूहिक जीवन यापन किया जा सकता है।
2021-04-17