सद् विचारों को अपनाना ही इकलौता रास्ता

हृदयनारायण दीक्षित
विश्व मानवता विचार व बुद्धि से संचालित है। हम इसके अविभाज्य अंग हैं। इसलिए हम सब भी विचार व भाव प्रेरित हैं। क्वांटम भौतिकी के विशेषज्ञ डॉ. जाॅन हेजलिन ने लिखा है, ‘‘हमारा शरीर वस्तुतः हमारे विचारों का परिणाम है। हम चिकित्सा विज्ञान में यह समझना शुरू कर रहे हैं कि विचारों और भावनाओं की प्रकृति हमारी शारीरिक स्थिति तंत्र व क्रियाओं को निर्धारित करती है।’’ विचार बुद्धिगत होते हैं और भावनाएं हृदयगत। दोनों हमारे अंतःकरण को लगातार प्रभावित करते हैं। ऐसे प्रभाव शरीर की तमाम गतिविधियों में हलचल पैदा करते हैं। भय मानव जाति की बड़ी समस्या है। भय भविष्य की चिंता है। यह भविष्य में घटने वाली कल्पित घटना का मन पर पड़ने वाला प्रभाव है। भय की कपकंपी वर्तमान में घटित होती है। कल्पित घटना किसी भी रूप की हो सकती है। जैसे हम सोचें कि ऋतु परिवर्तन हो रहा है, मैं बीमार हो सकता हॅूं। इसी तरह मैं लिफ्ट में हॅूं। यह फंस सकती है। परीक्षार्थी सोच रहा है कि वह असफल हो सकता है। अनेक लोगों को ऊंचाई पर डर लगता है। मुझे स्वयं ऊंचाई पर डर लगता है।
उत्तराखण्ड के एक संसदीय कार्यक्रम में व्याख्यान था। मेरे रहने की व्यवस्था मसूरी में थी । मैने प्राकृतिक सुंदरता के लिए मसूरी नगर का नाम सुन रखा था। मन प्रसन्न था। लेकिन पहाड़ काट कर बनाई गई सड़क से भयग्रस्त हुआ। कभी दाएं पहाड़ और दाएं सैकड़ों फीट नीचे घाटी और कभी बाएं पहाड़ और बाएं ऐसी ही घाटी। भय की गहराई घाटी की गहराई से ज्यादा थी। शीर्ष पर होटल। चारों ओर प्राकृतिक सौन्दर्य। लेकिन होटल में भी भय की स्मृति थी। मैनें होटल के प्रबन्धक से पूछा, क्या देहरादून जाने के लिए कोई दूसरी सड़क है? मैंने उसे भय की बीमारी बताई। वह हंसा। दूसरी सड़क नहीं थी। कोलकाता में कुमार सभा पुस्तकालय के संचालनकर्ता प्रेमशंकर त्रिपाठी ने मुझे व्याख्यान के लिए बुलाया। मैंने जहाज से यात्रा की। रास्ते में मौसम की खराबी से जहाज कई बार लड़खड़ाया। मेरी भयग्रंथि कंपकपी करा रही थी। मैंने अपने व्याख्यान में इस डर का उल्लेख किया, ‘‘वैदिक अनुभूति में आकाश पिता है और धरती माता है। पिता डांटते थे। पिता आकाश के पास डर स्वाभाविक है। धरती माता के सान्निध्य में डर का कोई प्रश्न नहीं।
कोरोना महामारी को लेकर समूचा विश्व भयग्रस्त है। स्वस्थ सोच रहे हैं कि वे कोरोना की चपेट में आ सकते हैं। कोरोना संक्रमित सोचते हैं कि वे अब नहीं बचेंगे। आक्सीजन के अभाव की खबरें भी डराने का कारण बन रही हैं। समाचार माध्यम आशा बढ़ाने वाली शैली नहीं अपनाते। मृतकों की संख्या पर जोर रहता है। ठीक हुए लोगों के विवरण प्रायः नहीं होते या बहुत कम होते हैं। भय का विचार शरीर के भीतर तमाम रासायनिक परिवर्तन लाता है। भय केवल विचार है। जो नहीं हुआ है, उसके होने का कल्पित विचार। कोरोना महामारी से उत्पन्न डरावने विचार ने लाखों लोगों के शरीर को कुप्रभावित किया है। शरीर की क्षमता घट रही है। विचार मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं। यह अच्छा हो सकता है और बुरा भी।
रांडा बर्न की सुंदर पुस्तक है ‘‘दि सीक्रेट’’। इसमें एक अध्याय है-सेहत का रहस्य। उन्होंने डॉ. जाॅन एफ डेमार्टिनी को उद्धृत किया है। डेमांर्टिनी चिंतक चिकित्सक व प्रख्यात वक्ता हैं। वे बताते हैं ‘‘उपचार के क्षेत्र में हम प्लासीबो इफेक्ट के बारे में जानते हैं। प्लासीबो एक ऐसी नकली दवा है, जिसका शरीर पर कोई प्रभाव नहीं होता है। यह दवा नहीं, शक्कर की गोली होती है। आप मरीज को प्लासीबो देते समय कहते हैं कि यह प्रभावी दवा है और प्लासीबो का प्रभाव असली उपचारक दवा जैसा ही होता है। शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि उपचार में मस्तिष्क सबसे बड़ा तत्व है। कई बार तो यह दवा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यहां विचार का प्रभाव बताया गया है। हम जैसा सोचते हैं, मन शरीरी क्षेत्र में वैसा ही प्रभाव पड़ता है। उपनिषद के ऋषि यह बात जानते थे। मुण्डकोपनिषद (3.10) में कहते हैं ‘‘यं यं लोकं मनसा संविभाति-मनुष्य जिस-जिस लोक का चिंतन करता है, भोगों की कामना करता है- कामान कामयते। वही सब प्राप्त करता है।’’ कामना विचार है। अभिलाषा भी है। उपनिषद अभिलाषाओं की पूर्ति की भी प्रतिभूति देती है। शरीर पर अभिलाषा का प्रभाव पड़ता है। हमारे सभी विचार शरीर के भीतर ही पैदा होते हैं। शरीर विचार के सर्वाधिक निकट है।
सद्विचार शरीर को स्वस्थ रखते हैं और भय, ईर्ष्या, द्वेष शरीर को अस्वस्थ करते हैं। इनमें भी भय का विचार सर्वाधिक नुकसानदेह है। भारतीय चिंतन में शुभ सोचने का आग्रह है। इसका शरीर पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। भयग्रस्त चित्त में शुभ विचार नहीं उगते। भय स्वयं एक गहन विचार है। इसलिए अथर्ववेद में भय दूर करने की स्तुतितियाॅं हैं। दुर्गा सप्तशती में देवी से प्रार्थना है कि वे हमको भय से मुक्ति दिलाएं- भयम्य स्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तुते। भयग्रस्त चित्त शरीर को तो रुग्ण करता ही है, उसकी सोच विचार की शक्ति भी दुर्बल होती रहती है। सभी विचार अपने-अपने ढंग से जीवन को प्रभावित करते हैं। बेशक विचार पदार्थ नहीं है लेकिन उनका प्रभाव भौतिक पदार्थ से ज्यादा शक्तिशाली होता है।
एक लोककथा में इसका मजेदार वर्णन है, एक व्यक्ति ने बकरा खरीदा। वह बकरे को प्रसन्न मन अपने कंधे पर लादे घर जा रहा था कि आज इसके मांस से स्वादिष्ट भोजन बनाऊंगा। चार लड़कों ने बकरा हथियाने की योजना बनाई। एक लड़के ने उसे टोका-आप यह कुत्ता कितने रुपए का लाए हैं। बकरे वाले व्यक्ति ने डाटा ‘‘अबे! यह कुत्ता नहीं बकरा है। लड़के ने कहा ‘यह कुत्ता है। आप इसे बकरा मानो मुझे क्या लेना देना है? वह बकरा लादे आगे चला। दूसरे लड़के ने फिर टोका, ‘‘अंकल यह कुत्ता लादे कहां जा रहे हैं ? वह भड़का। यह कुत्ता नहीं बकरा है। आज रात डिनर में इसका इस्तेमाल होगा। लड़के ने कहा कि आपके साथ धोखा हुआ है। यह कुत्ता ही है।
विचार उसको प्रभावित कर रहे थे। वह व्यक्ति घर की ओर चला। मन में बकरे को लेकर संशय बढ़ रहा था। तीसरा लड़का सामने था। बोला ‘‘सुन्दर कुत्ता है। सर जी कितने में लाए हैं’’ ? वह आदमी झुझलाया। उसने बकरे को कंधे से उतारा। जमीन पर रखा। उसके मुंह पर हाथ रखकर बोला। इसका मुंह कुत्ते जैसा है लेकिन है यह बकरा ही। थोड़ी दूर चलने के बाद चौथा लड़का खड़ा था। उसने कहा ‘‘आपका कुत्ता अच्छी नस्ल का है। मेरे पास भी ऐसा ही कुत्ता है। आप यह कुत्ता कंधे पर क्यों रखे हैं। उस व्यक्ति ने बकरे को कंधे से उतारा। उसने कहा, ‘‘बकरी विक्रेता ने मेरे साथ धोखा किया है। पहले भी कई लोग इसे कुत्ता बता चुके हैं। यह मेरे किसी काम का नहीं। तुम कुत्ते के शौकीन हो। इसे ले जाओे। कथा दिलचस्प है। यहां व्यक्त विचारों के प्रभाव का उल्लेख है।
विचार प्रभाव से बचना आसान नहीं है। इसलिए सद् विचारों को अपनाना ही एकमात्र रास्ता है। उपनिषद कहते हैं कि सोचिए ‘‘मैं ब्रह्म हॅूं’’। सोचिए कि मैं अमृत पुत्र हॅूं। शंकराचार्य कहते हैं ‘‘मनन कीजिए कि मैं परमब्रह्म हॅूं। हम आधुनिक भय संदर्भ में सोच सकते हैं कि मैं स्वस्थ हॅूं। मैं और स्वस्थ हो रहा हॅूंं। मैं आनंदित हॅूंं। सोचें कि आनंदरस से भरा पूरा है यह अस्तित्व।

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