(चैत्र नवरात्र एवं नव संवत्सर 13 अप्रैल पर विशेष)
सुरेन्द्र कुमार किशोरीभारतीय नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 2078, युगाब्द 5123 का शुभारम्भ इस वर्ष 13 अप्रैल को हो रहा है। बसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उत्साह, उमंग, खुशी एवं चारों ओर पुष्पों की सुगंध से भरी होती है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है, आर्थिक महत्व का कालखंड। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है तथा खगोलीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस होता है। ब्रह्मपुराण पर आधारित ग्रंथ ‘कथा कल्पतरु’ में कहा गया है कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना आरम्भ की और उसी दिन से सृष्टि संवत् की गणना आरम्भ हुई। सब पापों को नष्ट करने वाली महाशान्ति उसी दिन सूर्योदय के साथ आती है।
चैत्र नवरात्र की पावन वेला एवं नव संवत्सर का प्रारंभ दोनों ही मानव जीवन के लिए शुभ संकेत साबित हो सकता है। चैती नवरात्र उल्लास और ऊर्जा के संधि काल के सकारात्मक परिवर्तन का संकेत होता है। साधक की चेतना को ईश्वर से एकाकार करने के शुभ संकेतों को जो समझ लेते हैं, अपना लेते हैं, उनका जीवन धन्य हो जाता है। ‘सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सवार्थ साधिके शरण्येत्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते’ यह पवित्र और तेजस युक्त मंत्रोच्चार लगातार नौ दिन तक घर से लेकर देवालय तक गूंजता रहेगा। नवरात्रि का नौ अंक अपने आप में एक महान रहस्य है। नौ अंकों में सृष्टि की संपूर्ण संपूर्ण संख्याएं समाहित हैं। पंच महाभूत एवं चारों अंतरण मिलकर नौ तत्व प्रकृति विकार एवं विश्व प्रपंच के मुख्य परिणाम हैं। साधकों की भाषा में भगवती के नौ स्वरूपों में शक्ति समस्त विश्व में व्याप्त है। मन, वचन, कर्म एवं समस्त इंद्रियों के द्वारा हमेशा भगवान के पास रहकर लगातार सभी प्रकार की सेवा करना ही उपासना है।
किसी भी व्यक्ति की आत्मिक प्रगति कितनी हुई इसका निर्धारण उसके कथन-पठन, श्रवण-भजन आदि के बहिरंग क्रिया-प्रक्रिया के आधार पर किया जाता है। बाह्य उपचारों को तो कोई परंपरावश, लोभवश होकर अपनी इच्छा, आकांक्षाओं की पूर्ति के कर सकता है, इसका कदाचित लाभ भी उसे मिल जाता होगा। लेकिन ईश्वरीय प्रेम तो भक्तों के हिस्से में आता है। जो वास्तव में नव संवत्सर के काल में अपने भीतर के सौभाग्य को, अपनी पात्रता को विकसित करना चाहते हैं, उनके लिए नियम एवं पूजा-विधानओं के अतिरिक्त कुछ आंतरिक आधार भी जरूरी हैं। जिन्हें प्रत्येक साधक को समझ लेना हितकर है। इस समय में दो शब्द सर्वाधिक उपयोग में लाए जाते हैं व्रत और उपवास। इनके सही अर्थ को समझना अनिवार्य है। व्रत के शाब्दिक अर्थ के अनुसार जब भी कोई श्रेष्ठ संकल्प लिया जाता है तो वह व्रत कहलाता है। व्रत के द्वारा मनुष्य लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आत्मशक्ति संजोने का प्रयत्न करता है। यह प्रयत्न जितना दृढ़ होता है, व्यक्ति उतनी ही सुगमता तथा सफलता से जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सकता है।
व्रत का समुचित लाभ तभी मिल सकता है, जब वह उचित दिशा की ओर केंद्रित हो और यह दिशा उपवास है। उपवास का अर्थ है ईश्वरीय चेतना के सानिध्य को समझना। व्रत से उपवास का कार्य संपन्न होता है, इससे जीवन का बिखराव थमता है और ऊर्जा परमात्मा की ओर नियोजित होती है। जीवन का हर कर्म, हर प्रयत्न व्रत हो सकता है, उपवास व्रत बन सकता है, यदि उसमें ईश्वर से एक होने की आकांक्षा और आत्मा का तीव्र संकल्प समाहित हो। ऐसे में आत्मा, परमात्मा की ओर उन्मुख होकर और परिपूर्णता को प्राप्त करती है। भारतीय शास्त्रों में एक स्वर से स्वीकार किया गया है कि जीवन का वास्तविक सुख केवल धन संचय या प्रभुत्व स्थापित करने में नहीं है। एक पक्ष को ही उन्नत करने से मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं होता। उसको चाहिए वह जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्नति करे, सफलता प्राप्त करे और पूर्णता ग्रहण करे। बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जो सभी दृश्यों से पूर्ण सुखी कहे जा सकते हैं।
शास्त्रों में भी कहा गया है कुल मिलाकर सात सुख होते हैं। जिनके जीवन में सातों सुख होते हैं वह अपने आप में पूर्ण कहा जा सकता है। नवरात्र में व्रत-उपवास का साधारण आशय आहार संयम से भी लिया जाता है। आहार का हमारी मनोस्थिति से गहरा तारतम्य है। इस दौरान सात्विक आहार को वरीयता दी जाती है। कभी-कभी अन्य ग्रहण नहीं करने को सात्विक मान लिया जाता है। इस फेरे में अनेक व्यक्ति अधिक गरिष्ठ पदार्थ लेते हैं जो कि शरीर और मन दोनों पर अतिरिक्त दबाव डालते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति निराहार रहकर ही नवरात्र का समय व्यतीत करते हैं, यह भी उचित नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि ना तो अधिक खाने वालों का और ना ही कम खाने वालों का योग सिद्ध होता है। इसलिए आहार सम्यक और समुचित होना चाहिए, इस समय जो भी खाद्य पदार्थ ग्रहण किए जाएं, वे पाचन तंत्र पर कम से कम दबाव डालें। इतने कम भी नहीं हो कि मन, शरीर पर या भूख पर केंद्रित हो जाए।
परमात्मा से प्राप्त वस्तुओं का सर्वश्रेष्ठ नियोजन उसी की सृष्टि को, उसी की कृति को सहायता पहुंचाने में है। अपने बच्चों की सहायता से वे सीधे भी कर सकते हैं लेकिन परमात्मा हमें यह सौभाग्य यज्ञीय भावना के माध्यम से प्रदान करते हैं। कुल मिलाकर नवरात्र साधना एक जीवन शैली है। यह साधना नौ दिनों में समाप्त नहीं होती है, बल्कि और प्रगाढ़ होकर हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाती है। इन नौ दिनों में स्थूललोक एवं सूक्ष्मलोक साधक के अत्यंत नजदीक होते हैं। इस समय में जो भी कर्म, भाव और विचार बोया जाता है वह अनेक गुना फलदाई होकर प्राप्त होता है। देवी विभूतियां इस समय में अधिक से अधिक सक्रिय हो अपने अनुदान, आशीर्वाद वितरित करने के लिए पात्रों की तलाश में रहती है। जिनका हृदय तपस्या की रश्मिओं से ओत-प्रोत है, अंतःकरण में ईश्वर या मिलन की अभिप्शा है, उनके लिए चैत्र संवत्सर एक नवीन जीवन का प्रारंभ हो सकता है।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना थी, संत झूलेलाल जी और अंगददेव जी का जन्म भी इसी दिन हुआ था। सनातन संस्कृति और हिंदुत्व के ध्वजवाहक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी का जन्म भी इसी शुुभ दिन हुआ था। आइए नवरात्र साधना के तत्व दर्शन को समझते हुए वैश्विक महामारी के इस आपदा बेला में ईश्वर सेे एकाकार होकर विश्व शांति की कामना कीजिए। अगर साधक में साहस, क्षमता और कुछ कर गुजरने की प्रबल इच्छा हो, अपने जीवन में सफलता पाना चाहे तो संसार के तमाम लौकिक और अलौकिक सुख प्राप्त किए जा सकते हैं। नवरात्र साधना के समय हम जो भी कर्म-भाव और विचार बोएंगे, वह अनेक गुना फलदायी होकर प्राप्त होगा।