संस्कृत दिवस (19 अगस्त) पर विशेष
गिरीश्वर मिश्र
ज्ञान की भारतीय परम्परा के स्रोत के रूप में संस्कृत भाषा और साहित्य प्रेरणा और गौरव का विषय है। ज्ञान की साधना को जीवन के क्लेशों से छुटकारा दिलाने के उपाय के रूप में स्थापित करते हुए पुरुषार्थों से मनुष्य जीवन को समग्रता में जीने का प्राविधान किया गया है। इसी से लिए ज्ञान को पवित्र माना गया है न कि दूसरों पर नियंत्रण का ज़रिया। संस्कृत विद्या के विस्तृत प्रांगण में सृष्टि और मनुष्य जीवन से जुड़े सभी पक्षों को शामिल किया गया है। वेद, वेदांग, उपनिषद, स्मृतियों, पुराणों, महाकाव्यों ही नहीं गणित, ज्योतिष, व्याकरण, योग, आयुर्वेद, वृक्षायुर्वेद, धातु विज्ञान तथा नाना विद्याओं जैसे व्यावहारिक विषयों का विकास विपरीत परिस्थितियों में भी होता रहा। इस ज्ञान-कोष को आक्रांताओं के विद्वेष का सामना करना पड़ा और नालंदा जैसे विश्वविख्यात ज्ञान केंद्र को नष्ट कर दिया गया।
वाचिक पद्धति अध्ययन अध्यापन से बहुत कुछ बच गया और उसे अगली पीढ़ी अनेक विषयों के प्रतिपादन में संक्षिप्त, सांकेतिक तथा संयत सूत्र पद्धति का उपयोग किया गया। बादरायण का ब्रह्म सूत्र,आपस्तम्ब का धर्म सूत्र, वात्स्यायन का काम सूत्र, गौतम का न्याय सूत्र, पतंजलि का योग सूत्र और पाणिनिरचित व्याकरण का मानव मेधा का अप्रतिम प्रमाण ‘अष्टाध्यायी’ विविध विषयों का व्यवस्थित प्रतिपादन करते हैं। थोड़े से अक्षरों में निबद्ध सूत्र की विशद व्याख्या की जाती है। भाष्य और टीका की परम्परा शुरू हुई। पाणिनि के अष्टाध्यायी के सूत्रों पर कात्यायन ने वार्तिक लिखे। अष्टाध्यायी के अनेकानेक विस्तार हुए और वरदराजाचार्य की लघुकौमुदी, भट्टोजिदीक्षित की सिद्धांतकौमुदी, पतंजलि का महाभाष्य, भर्तृहरि का वाक्यपदीय, नागेश भट्ट का शब्देन्दुशेखर और परिभाषेन्दुशेखर आदि व्याख्या ग्रंथ रचे गए। विश्लेषण की गहनता और विचार की स्वाधीनता के ये निकष आज भी स्पृहणीय हैं।दुर्भाग्य से संस्कृत विद्या पर संकुंचित होने का आरोप लगाया जाता है। सत्य यह है भारत के विविध मतों की प्रचुरता है। वह वैचारिक उदारता और सहनशीलता का अनोखा उदाहरण है। अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, भेदाभेद, शुद्धाद्वैत, अचिंत्य भेदाभेद जैसे विभिन्न रूपों शंकराचार्य, निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य आदि के द्वारा वेदांत का प्रतिपादन सृष्टि, जीवन और जगत की समग्र विविध व्याख्याओं को उपस्थित करते हैं।
भारतीय ज्ञान परम्परा के बौद्धिक परिवेश में प्रवेश करने पर ज्ञान के प्रति निश्छल उत्सुकता और अदम्य साहस के प्रमाण पग-पग पर मिलते हैं। इसमें आलोचना और परिष्कार का कार्य भी सतत होता रहा है । सैद्धांतिक अमूर्तन , खंडन-मण्डन की एक पारदर्शी एवं सार्वजनिक विमर्श की व्यवस्था को दर्शाती है । प्रत्येक शास्त्र की विषय वस्तु, उद्देश्य, प्रासंगिकता और इसके जिज्ञासु को सुनिश्चित किया गया था। ज्ञान अबाधित होना चाहिए और छल प्रपंच से रहित होना चाहिए । उसे प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि विभिन्न स्वीकृत प्रमाणों पर जाँच परख कर स्वीकार करना चाहिए। ज्ञानार्जन में श्रवण, मनन और निदिध्यासन का अवलम्बन किया जाता है । संस्कृति के जीवित प्रवाह स्वरूप संस्कृत में उपलब्ध भारतीय मनीषा को प्रतिष्ठित करना मानव कल्याण के लिए आवश्यक है।
दुर्भाग्य से संस्कृत को अनुष्ठानों के लिए आरक्षित कर जीवन- संस्कार, पूजन और उद्घाटन से जोड़ दिया गया। हम इस अमूल्य विरासत का मूल्य भूल गए। शिक्षा, परिवार, राज नय , व्यवसाय, वाणिज्य, स्वास्थ्य , प्रकृति, जीवन, जगत और ईश्वर को ले कर उपलब्ध चिन्तन बेमानी रहा । हम नाम तो सुनते रहे पर बिना श्रद्धा के क्योंकि मन में संदेह और दुविधा थी। पश्चिमी सांस्कृतिक और वैज्ञानिक घुसपैठ ने हमारी विश्व दृष्टि को ही बदलना शुरू किया। आज अतिशय भौतिकता और उपभोक्तावाद से सभी त्रस्त हो रहे हैं।
भारत में अकादमिक समाजीकरण की जो धारा बही उसमें हमारी सोच परमुखापेक्षी होती गई और हमारे लिये ज्ञान का संदर्भविन्दु पश्चिमी चिन्तन होता गया। ज्ञान के लिये हम परोपजीवी होते गए । हम उन्हीं के सोच का अनुगमन करते रहे । ज्ञान की राजनीति से बेखबर हम नए उन्मेष से वंचित होते गए । पश्चिम के अनुधावन से मौलिकता जाती रही । भारत के शास्त्रीय चिन्तन को समझना और उसका उपयोग सैद्धांतिक विकास व्यावहारिक समाधान में लाभकारी होगा। योग और आयुर्वेद को ले कर ज़रूर उत्सुकता बढ़ी है पर अन्य क्षेत्र अभी भी उपेक्षित हैं। संस्कृत के लिये अवसर से न केवल ज्ञान के नए आयाम उभरेंगे बल्कि संस्कृति से अपरिचय काम होगा, भ्रम भागेगा और हम स्वयं को पहचान सकेंगे।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)