नई दिल्ली, 21 अक्टूबर (,हि. स.)। भारतीय चिंतन और संस्कृति में कर्तव्यबोध कूट-कूट कर भरा है और कर्तव्य पूर्ति का जितना ज्ञान घर-घर पहुंचेगा, समाज और राष्ट्र उतना ही विकसित और सशक्त होगा।
हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) में आयोजित तीन दिवसीय ” दीपोत्सव: पंच प्रण” में आयोजित व्यख्यानमाला में नई दिल्ली स्थित स्वामी चिन्मयानंद ट्रस्ट के प्रमुख स्वामी प्रकाशानन्द ने ”नागरिकों के कर्तव्य” विषय पर विचार रखते हुए कहा कि हमारे वेद-शास्त्रों में कर्तव्यपूर्ति का जितना ज्ञान घर-घर पहुंचेगा उतना ही हमारा समाज सशक्त होगा, एक सशक्त समाज ही मजबूत और विकसित राष्ट्र तैयार करता है।
स्वामीजी ने कहा कि नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है कि अपने आसपास की समस्या, समाज की समस्या के लिए सरकार और प्रशासन पर ही निर्भर न रहें, बल्कि एकजुट होकर राह की हर चुनौती का सामना करें।
उन्होंने महाभारत काल में कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन के शोक और श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये गीताज्ञान को उदधृत करते हुए कहा कि जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसका व्यापक ज्ञान हमारे वेदों में है। वेदों में दिए कर्तव्य बोध के ज्ञान को धर्मशास्त्र कहते हैं। इसलिए वेदों को पढ़ना आवश्यक है।
स्वामी प्रकाशानन्द ने आगे कहा कि जीवन में दुख होना स्वाभाविक है, किंतु दुख में डूब जाना अविवेक और अज्ञान है। जब तक अज्ञान नहीं मिटेगा कर्तव्य की पूर्ति नहीं हो सकती।
व्याख्यान को आगे बढ़ाते हुए कलस्टर विवि जम्मू कश्मीर के कुलपति प्रो. बेचन लाल जायसवाल ने कहा कि समाज ने अपने दायित्व को राजनीति पर छोड़ दिया है। राजनीति का समाज मे इतना हस्तक्षेप ठीक नहीं है। समाज का राजनीति पर दबाव होना चाहिए। कर्तव्यबोध ना होने से हम अपने सामाजिक और राजनीतिक दायित्व से विमुख हो रहे हैं।
जायसवाल ने कहा कि यह विडंबना है कि देश के प्रधानमंत्री को पंच प्रण की अपील करनी पड़ रही है। राष्ट्र की संस्कृति का आधार कर्तव्यबोध पर आधारित है। श्रीराम ने वनवास के दिन ही संसार को निश्चरहीन करने का संकल्प लिया था। यह कर्तव्यबोध है।
उन्होंने कहा कि छोटा सा अमावस्या के घोर तिमिर को चुनौती देता है। कर्म ही कर्तव्य है। फल पर हमारा अधिकार नहीं है। हम व्यक्तिगत उत्थान के लिए कर्म करने को तैयार है, लेकिन सामाजिक व राष्ट्र के प्रति कर्तव्य को भूल जाते हैं। कर्तव्यपरायणता नहीं है, अधिकार का ज्ञान है। कर्तव्य को आचरण में उतारने वाले लोग नहीं है। आचरण बहुत जरूरी है। इसलिए कर्तव्यबोध से परिपूर्ण होना बहुत आवश्यक है। इससे भारत अपने पुराने वैभव पर लौटेगा। तभी हम अपने नागरिकों में कर्तव्य भावना को देख सकेंगे।