-उत्तर प्रदेश की वाराणसी जेल में नौ माह रहे बंद
लखनऊ, 11 सितंबर (हि.स.)। ब्रह्मलीन जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपनी युवावस्था में क्रांतिकारी संत के रुप में प्रसिद्ध थे। इसके चलते ब्रिटिश हुकूमत ने उत्तर प्रदेश की वाराणसी जेल में उन्हें नौ माह तक बंदी बनाये रखा था। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के प्रमुख शिष्यों में अविमुक्तेश्वरानन्द सरस्वती का कहना है कि जब वह युवा थे तब देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी। स्वामी स्वरूपानंद भी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये। देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ उनकी मुहिम के चलते वह देश भर में क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए।
अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए स्वामी स्वरूपानंद को पहले वाराणसी की जेल में नौ महीने और फिर मध्य प्रदेश की जेल में छह महीने अंग्रेजों ने बंदी बनाये रखा। इस दौरान वह करपात्री महाराज के राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे।
उप्र से शंकराचार्य का रहा गहरा नाता
आजादी की लड़ाई के दौरान वाराणसी की जेल में बंद रहे स्वामी स्वरुपानंद का उत्तर प्रदेश से गहरा नाता रहा है। स्वतन्त्रता आंदोलन में गाजीपुर के बभनौली गांव के बाहर कुटिया बनाकर रह रहे थे और वहीं से सन्यास आश्रम का पालन करते हुए उन्होंने आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका अदा की। इसके बाद गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कराने और रामजन्मभूमि आंदोलन में उन्होंने काशी में रहकर संघर्ष किया। वाराणसी के विद्वान संतों और मनीषियों से वह मार्गदर्शन भी प्राप्त करते थे। काशी स्थित केदारनाथ घाट पर उनका ‘‘श्री विद्या मठ’’ आश्रम भी है। काशी में ही रहकर उन्होंने वेद वेदांग की शिक्षा भी ली थी।
इसके अलावा प्रयागराज में संगम तट पर हर वर्ष मास पर्यन्त लगने वाले माघ मेले, अर्ध कुम्भ और कुम्भ मेले में भी प्रवास करते थे। इस दौरान उनके शिविर में बड़े-बड़े आयोजन होते थे। उसमें साधु-संतों के अलावा बड़े राजनेता भी शामिल होते थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी उनसे आशीर्वाद लेने संगम तट पर कभी-कभी आया करते थे।
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में हुआ निधन
गौरतलब है कि द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का आज मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में निधन हो गया। उनकी उम्र 99 साल थी। स्वामी स्वरूपानंद का जन्म वर्ष 1924 में भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि (दो सितंबर) को मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में उनका नाम पोथीराम उपाध्याय था। मात्र नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने गृहत्याग किया था। वर्ष 1950 में उन्होंने दंडी संन्यासी की दीक्षा ली और 1981 में उन्हें शंकराचार्य की उपाधि मिली।