भारत से सरकार चलाना नहीं सीख सका नेपाल

डॉ. प्रभात ओझा

लगता है कि भारत के पड़ोसी नेपाल के राजनेताओं ने हमसे राजनीति में गठबंधन धर्म नहीं सीखा है। कभी भारत में भी गठबंधन की सरकारें गिर जाया करती थीं, कुछ राज्यों को छोड़कर अब ऐसा नहीं होता। कह सकते हैं कि यहां सबसे बड़े गठबंधन एनडीए की बड़ी पार्टी भाजपा को गठबंधन चलाने का श्रेय जाता है। अकेले बहुमत में होने के बावजूद भाजपा ने सरकार में दूसरों को भी मौका दिया। नेपाल में तो प्रधानमंत्री की कुर्सी ही शेयर करने का समझौता हुआ था। कहते हैं कि सरकार बनाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल यानी सीपीएन ने अपने गठन के समय ही केपी शर्मा ओली और पुष्प कमल दहल प्रचंड के बीच बारी-बारी से सत्ता के हस्तांतरण की बात मानी थी। साल 2018 में आई सरकार के प्रधानमंत्री ओली ने सरकार और पार्टी पर धीरे-धीरे अपना नियंत्रण मजबूत करना शुरू किया तो प्रचंड को खतरे का अहसास होने लगा। लगा कि ओली पूर्व समझौते के हिसाब से नहीं चलेंगे। पिछले साल दिसंबर में तो दोनों ने अलग-अलग पार्टी की कथित केंद्रीय समिति की बैठक भी बुलायी। मकसद साफ था, दोनों अपने को बहुमत वाली पार्टी का नेता सबित करने में लगे हुए थे।

पीएम केपी शर्मा ओली ने इस बीच एक नई चाल चली। उन्होंने संसद भंग कर नया चुनाव कराने की सिफारिश की। फरवरी में उच्चतम न्यायालय ने भंग प्रतिनिधि सभा को बहाल कर दिया, जो मध्यावधि चुनाव की तैयारी कर रहे ओली के लिए झटका था। ताजा घटनाक्रम पिछले हफ्ते शुरू हुआ, जब प्रचंड ने आधिकारिक रूप से सरकार से समर्थन वापस ले लिया। फिलहाल, राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी के निर्देश पर प्रधानमंत्री ओली ने संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में सरकार के लिए विश्वास प्रस्ताव रखा था। इस पर मतदान में सरकार के समर्थन में 93 और विपक्ष में 124 मत मिले। कुल 275 सदस्यीय सदन में चार सदस्य निलंबित हैं। इस तरह सरकार को बचाये रखने के लिए 136 वोटों की जरूरत थी। ओलो को सदन में कई छोटे दलों से समर्थन की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हुई।

खबरें आ रही हैं कि राष्ट्रपति भी ओली सरकार को बचाये रखने के पक्ष में हैं। इस कोशिश के तहत ही फिर से ओली को ही सबसे बड़े दल के नेता के रूप में सरकार बनाने का मौका देने की तैयारी है। यह इस आधार पर किया जा सकता है कि उधर, प्रचंड भी बहुमत नहीं दिखा पा रहे हैं। वैसे पीएम ओली और राष्ट्रपति विद्यादेवी की जुगलबंदी को समझने के लिए पिछले दिनों नेपाल में चीन की राजदूत और राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी की मुलाकातों को देखा जा सकता है। चीनी राजदूत हाओ यांकी की गतिविधि को नेपाल में चीन के हित सुरक्षित रखने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। भारत-चीन विवादों के बीच नेपाल में चीनी राजदूत की वहां की राजनीति में दिलचस्पी से भारत चौकन्ना हुआ। नेपाल की भौगोलिक स्थिति भारत और चीन, दोनों के लिए खास रही है। कुछ समय से पाकिस्तान के साथ नेपाल को भी कई तरह की मदद से चीन उसे अपने अनुकूल करते रहने की कोशिश कर रहा था। एकबारगी तो अपने बयानों से नेपाल के प्रधानमंत्री ओली भारत-विरोध के स्तर तक दिखने लगे थे, पर शीघ्र ही भारत की कोशिशों ने स्थिति को अनुकूल किया।

अब ताजा राजनीतिक घटनाक्रम के बाद भी चीन चाहेगा कि नेपाल में ओली सरकार ही बनी रहे। नेपाल की राष्ट्रपति की ओर से भी जिस कदम की अपेक्षा है, चीन के अनुकूल ही है। भारत निश्चित ही अपने उस मान्य सिद्धांत पर कायम रहेगा, जिसके तहत वह किसी पड़ोसी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत इस मामले पर नजर रखेगा। नेपाल में इसबार सरकार का गिरना सामान्य राजनीतिक घटना नहीं है। वहां एक ही तरह की विचारधारा के इर्दगिर्द रहने वाले राजनेताओं में बिखराव स्पष्टतः दो फाड़ में दिख रहा है। वैसे तो कम्युनिस्ट ख्याल के अन्य दल भी नेपाल में हैं। फिर भी प्रचंड और ओली के साथ आने से दक्षिण एशिया में सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था। अब वे दो राह पर हैं। इस अर्थ में यह घटना भारत से अलग है। हमारे यहां सामान्य तौर पर 90 के दशक में गठबंधन के कई प्रयोग अधर में ही फंस गए थे। कारण सत्ता की ही बंदरबांट थी। अब भारत में ऐसा नहीं दिखता, पर इस कारण पड़ोसी को हम नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। खासकर तब, जबकि चीन उसमें खूब रुचि ले रहा है।

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