प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 10 मई पर विशेष
प्रमोद भार्गव1857 में बंगाल में अंग्रेजी-सत्ता को जड़-मूल से उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध विद्रोही सिपाहियों के मुख से पहले-पहल ‘हिंदुस्तान छोड़ दो’ का नारा आकाश में गूंजा था। इस सैन्य आक्रोश को लक्ष्य करके ही फिरंगी हुकूमत के खिलाफ जो व्यापक और स्व-स्फूर्त विद्रोह विस्फोटक रूप में प्रगट हुआ, जिसे अंग्रेज इतिहासकार केवल ‘गदर’ कहते हैं, जबकि हकीकत में यही विद्रोह भारत का पहला ऐसा मुक्ति संग्राम था, जिसकी शहादत की श्रृंखला ने इसे देशव्यापी लोक संग्राम में बदल दिया था। इसी का प्रतिफल 15 अगस्त 1947 देश को मिली आजादी थी। 1857 के आने तक भारत को कंपनी सरकार की गुलामी का जुआ लादे हुए सौ वर्ष पूरे हो रहे थे। 23 जून 1857 को पलासी की लड़ाई की शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में अंग्रेज सेना में शामिल भारतीय सैनिकों ने एक ही दिन विद्रोह का झंडा फहराने और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सतत संघर्ष का संकल्प लिया था। गोपनीय ढंग से इस सूचना का क्रम लाल कमल के फूलों और चपातियों के माध्यम से आधिकांश सैनिक छावनियों में किया जा रहा था।
सैनिक नेतृत्वकर्ताओं ने संघर्ष का यह समय बड़ी सूझबूझ और दूरदर्शिता से चुना था। दरअसल यही वह समय था,जब यूरोप में रूस के साथ अंग्रेज युद्धरत थे। इस कारण भारत में बड़ी संख्या में सैनिकों को रख पाना संभव नहीं हो रहा था। इस समय भारत में जो अंग्रेजों की फौज थी, उसमें अंग्रेज सैनिकों की संख्या केवल 40 हजार थी, जबकि भारतीय सैनिकों की संख्या 2 लाख 15 हजार थी। जो अंग्रेज 40 हजार की संख्या में थे, वे भी बंगाल, बंबई और मद्रास प्रेसिडेंसियों में बंटे हुए थे। सबसे बड़ी बंगाल की सेना थी, जिसमें सामाजिक दृष्टि से समरूपता थी। इस सेना में अवध, बिहार और उत्तर-प्रदेश के सैनिक थे। इनमें ब्राह्मण, राजपूत, जाट, सिख और मुसलमानों में सैयद व पठान थे। इन सैनिकों की खास बात यह थी कि इन समुदायों में से ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे। इनके अलावा कुछ छोटे सामंत और जमींदारों के पुत्र भी सैनिक थे। इनमें कई सैनिक उन राज्यों से थे, जिन्हें छल-कपट से पराजित करके अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा का शिकार बना लिया था। इसलिए किसी न किसी रूप में आहत ये सैनिक चाहते थे कि 22 जून 1857 को पलासी की पराजय के सौ साल पूरे होने के दिन उत्सव मनाया जाए और इसके पहले अंग्रेजी सत्ता का पतन हो जाए।
यह समय सैनिकों के लिए इसलिए भी अनुकूल था, क्योंकि भारत में जो अंग्रेज सैनिक थे, उन्हें मई-जून की गर्मी सहना मुश्किल होती है। यह वही समय होता है, जब देशभर में रबी की फसल के कटने और उसके क्रय-विक्रय से वसूली जाने वाली लगान से कंपनी का खजाना लबालब रहता है। इसलिए इस मौके की नजाकत को भुनाने की दृष्टि से सैनिकों के नेतृत्वकर्ता दिल्ली के तत्कालीन बादशाह बहादुर शाह जफर और महारानी जीनत महल से भी मिले थे और बादशाह से तात्कालिक संघर्ष की शुरुआत के लिए धन भी मांगा था। किंतु बादशाह ने लाचारी जता दी कि कोष खाली है। वास्तविकता भी यही थी, क्योंकि लगान जागीरदार और मुलाजिमों के जरिए कंपनी के कोष में जमा हो रही थी।
दिल्ली के बादशाह से मिलकर एकाएक संग्राम का प्रस्ताव रखने वाले साधारण सिपाही नहीं हो सकते थे, इसलिए हम यह जान लें इस संग्राम की गुप्त भूमिका रचने में कौन देशप्रेमी संलग्न रहते हुए अपनी जान हथेली पर लिए घूम रहे थे ? दरअसल असंतोष और आक्रोश की भावना तो चहुंओर थी और हर वर्ग में थी, महज इस घृणा को विस्फोटक रूप देना था। इस चक्रव्यूह की संरचना में संलग्न थे नाना साहब, तात्याटोपे और अजीमुल्ला खां। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का लालन-पालन नाना की देख-रेख में ही हुआ था, इसलिए झांसी के दुर्ग से जबरदस्ती विस्थापित कर दी गयी रानी भी संग्राम की भावी योजना में शामिल थीं। अजिमुल्ला ने इस संग्राम के समर्थन के लिए यूरोप में भी सक्रियता दिखाई थी। संयोग से इसी समय रंगोंबाबू गुप्ते भी सतारा राज्य के साथ हुए अन्याय के मामले में अपील के लिए ब्रिटेन में थे। यहां गुप्ते से अजीमुल्ला की भेंट हुई। दोनोंअन्याय से पीड़ित थे इसलिए दोनों ने संकल्प लिया कि भारत वापसी पर इस साम्राज्य के समूल विध्वंस की कोशिशों में हिस्सा लेंगे।
ब्रिटेन से अजीमुल्ला भारत लौट आया। उसने अपनी आपबीती नाना साहब को सुनाई। साथ ही नाना के समक्ष अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का प्रस्ताव रखा। नाना ने यह प्रस्ताव अपने अनन्य सहयोगी तात्याटोपे, राव साहब बाबा भट्ट, ज्वाला प्रसाद के सामने रखा। लंबे विचार-विमर्श के बाद इन सबों में सशस्त्र संग्राम के लिए सहमति बन गई। संग्राम का निर्णय बिठूर में नाना साहब के निवास स्थल पर लिया गया था। यह फैसला लेते समय विद्रोह की सफलता के लिए प्रत्येक पहलू पर विचार किया गया। रूपरेखा बनाई गई। इस सशस्त्र क्रांति का नेतृत्व करने के लिए बहादुरशाह जफर के नाम पर सहमति बनी। क्रांति की इस रूपरेखा के परिप्रेक्ष्य में नाना साहब और तात्याटोपे दिल्ली में सम्राट से मिले थे। इस फैसले के उपरांत गुप्त रूप से क्रांति की तैयारियां शुरू कर दी गईं। संगठन के विस्तार की देशव्यापी मुहिम शुरू कर दी गई।
पहले उन नरेशों से सहभागिता की अपेक्षा की गई जो अंग्रेजों की कुटिलता का शिकार बने थे। भारत में कुल 35 हजार राज्य व जगीरें थीं, जिनमें से 21 हजार को अंग्रेज अपने अधीन 1857 तक कर चुके थे। शुरूआत में देशी राजाओं ने इन पत्रों पर विशेष ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब 1856 में अवध का कंपनी राज में विलीनीकरण हो गया तो सभी भारतीय नरेशों के कान खड़े हो गए। वे समझ गए कि फिरंगियों की तलवार उनके सिर पर भी लटकी हुई है। गोया, अवध की घटना के बाद नाना को कई नरेशों के प्रति उत्तर मिले। कई ने सशस्त्र संग्राम में प्रत्यक्ष भागीदारी की हामी भरी तो कई ने प्रछन्न रूप से सैनिक, हथियार, बारूद व रशद देने की इच्छा जताई। दिल्ली में मुगल सम्राट बहादुरशाह, लखनऊ में बेगम हजरत महल, बिहार में कुंवर सिंह, झांसी में रानी लक्ष्मीबाई और फैजाबाद के मौलवी अहमदशाह ने अनेक सभाओं में भाषण देकर जन-साधारण में विद्रोह के बिगुल का शंखनाद कर दिया।
इसके बाद नाना के संदेशवाहक अनेक राजाओं के पास व्यक्ति गत रूप से मिलने गए। ये लोग साधुओं, फकीरों, भविष्यवक्ताओं और बहरूपियों व मदारियों के वेष में जाते थे। स्वांग भी करते थे और अपना उद्देश्य हासिल कर लेते थे। क्रांति के ये सूत्रधार क्रांति के प्रतीक चिन्हों को आगे बढ़ाने का काम भी करते थे। संगठन ने कमल का फूल उन सब पलटनों में, जो इस संगठन में शामिल थीं घुमाया जाता था। किसी एक पलटन का सिपाही फूल लेकर दूसरी पलटन में जाता। चपाती यानी रोटी एक गांव का चौकीदार दूसरे गांव के चौकीदार के पास ले जाता था। इस चौकीदार का धर्म था कि वह उस चपाती में से थोड़ी खुद खाए और शेष बची रोटी को ग्रामीणों को खिला दे। तदुपरांत गेंहू, ज्वार, मक्का या गांव में उपलब्ध किसी भी अनाज के आटे की वैसी ही चपातियां बनवाएं और दूसरे निकटतम ग्राम में पहुंचा दें। जो गांव रोटियों को स्वीकार लेता था और फिर दूसरी रोटियां बनाकर सीमांत गांव में भिजवाने की व्यवस्था करता था, इसका अर्थ था कि यह गांव लोक के संग्राम रूपी यज्ञ में अपनी शक्ति की समिधा डालने को तैयार है।
भारत जैसे विशाल भू-भाग वाले देश में इस तरह से लाखों ग्रामों में क्रांति का आवाहन कर दिया गया और अंगेजों को कानों-कान खबर भी नहीं लगी। कमल और चपाती के प्रतीकों के रूप में क्रांति की अर्थसूचक गोपनीयता तब तक बनी रही थी, जबतक मंगल पाण्डे की बंदूक से गोली नहीं छूटी थी। अंततः भारत के लोक-मानस में क्रांति के सूत्रधार यह संदेश पहुंचाने में सफल हो गए कि 31 मई 1857 के दिन एकसाथ विद्रोह का बिगुल बजाते हुए व यह नारा बुलंद करते हुए कि ‘खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का’ किलों और सामरिक महत्व के भवनों व प्रशासनिक कर्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया जाए। किंतु भारतीयों के भाग्य में अभी परतंत्रता की बेड़ियां ही बदी थीं, सो नियत दिनांक 31 मई 1857 को विप्लव की चिंगारी एकसाथ नहीं सुलग पाई।
ऐसा अनायास घटी एक छूआछूत की घटना और उससे उपजे वार्तालाप से संभव हुआ। यह घटना कलकत्ता के पास दमदम नाम के छोटे से गांव में घटी थी। बैरकपुर के पास नए ढंग के कारतूस बनाने के लिए 1853 में एक कारखाना खुला था। ये कारतूस खासतौर से एनफील्ड नामक नई बंदूकों में इस्तेमाल के लिए थे। इन कारतूसों को पहले दांतों से काटना पड़ता था, जबकि इसके पहले दिए जाने वाले कारतूसों का मुख का ढक्कन हाथ से खुल जाता था। शुरूआती दौर में ये कारतूस एक-दो सैनिक टुकड़ियों को ही बांटे गए थे, उनमें से एक बैरकपुर फौज थी।
हुआ यूं कि बैरकपुर के पास दमदम का एक ब्राह्मण सैनिक पानी का भरा लोटा लिए छावनी की ओर जा रहा था। यकायक एक व्यक्ति ने निकट आकर प्यास बुझाने के लिए लोटा मांग लिया। सिपाही एक हद तक रूढ़िवादी था। सैनिक ने लोटा देने से इनकार कर दिया। तब उस व्यक्ति ने सिपाही का उपहास उड़ाते हुए कहा, ‘अब जात-पात का घमंड छोड़ो। क्या तुम्हें मालूम नहीं कि तुम्हें दांतों से काटने वाले जो कारतूस दिए जा रहे हैं, उनमें गाय का मांस और सुअर की चर्बी मिली हुई है। जो नए कारतूस बनाए गए हैं, उनमें जान-बूूझकर मांस और चर्बी मिलाए गए हैं, जिससे हिंदू और मुस्लिम दोनों का ही धर्म भ्रष्ट हो जाए।’ इस जानकारी से आगबबूला हुआ सिपाही छावनी में लौट आया। उसने अन्य फौजियों को यह वाकया सुनाया तो उनकी आंखों में गुस्से के लाल डोरे तैरने लगे। फलस्वरूप 10 मई 1857 को मेरठ में इन सिपाहियों ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का शंखनाद कर दिया। इसे ही 1867 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया है।
2021-05-10