गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जयंती (7 मई) पर विशेषयोगेश कुमार गोयलअपने 80 वर्षीय जीवनकाल में करीब एक हजार कविताएं, 8 उपन्यास, 8 कहानी संग्रह, 2200 से अधिक गीत तथा विभिन्न विषयों पर अनेक लेख लिखने वाले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक कवि, उच्च कोटि के साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार के अलावा संगीतप्रेमी, अच्छे चित्रकार तथा दार्शनिक भी थे। वह विश्व की एकमात्र ऐसी महान शख्सियत हैं, जिनके लिखे गीतों की छाप तीन देशों के राष्ट्रगान में स्पष्ट परिलक्षित है। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक’ उन्हीं के द्वारा मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया था जबकि बांग्लादेश का राष्ट्रगान भी उन्हीं के गीत से लिया गया है, जिसमें बांग्लादेश का गुणगान है। इसके अलावा श्रीलंका के राष्ट्रगान का एक हिस्सा भी उनके एक गीत से ही प्रेरित माना गया है।
7 मई 1861 को कोलकाता में साहित्यिक माहौल वाले कुलीन धनाढ्य परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ टैगोर एशिया के प्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें वर्ष 1913 में विश्वविख्यात महाकाव्य ‘गीतांजलि’ की रचना के लिए साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था। हालांकि उन्होंने यह पुरस्कार स्वयं समारोह में उपस्थित होकर ग्रहण नहीं किया था बल्कि ब्रिटेन के एक राजदूत ने यह पुरस्कार लेकर उनतक पहुंचाया था। नोबेल पुरस्कार में मिले करीब एक लाख आठ हजार रुपये की राशि टैगोर ने किसानों की बेहतरी के लिए कृषि बैंक तथा सहकारी समिति की स्थापना और भूमिहीन किसानों के बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल बनाने में इस्तेमाल की। टैगोर की महान रचना ‘गीतांजलि’ का प्रकाशन वर्ष 1910 में हुआ था, जो उनकी 157 कविताओं का संग्रह है। इसी काव्य संग्रह को बाद में दुनिया की कई भाषाओं में प्रकाशित किया गया।
वर्ष 1912 में टैगोर ने अपने बेटे के साथ समुद्री मार्ग से भारत से इंग्लैंड जाते समय खाली समय का सदुपयोग करने के लिए अपने कविता संग्रह ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद शुरू किया था। लंदन में उनके अंग्रेज चित्रकार मित्र विलियम रोथेनस्टाइन ने जब टैगोर के कविता संग्रह गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा तो वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने मित्र कवि डब्ल्यू.बी. यीट्स को गीतांजलि के बारे में बताया और पश्चिमी जगत के लेखकों, कवियों, चित्रकारों, चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। गीतांजलि के अंग्रेजी के मूल संस्करण की प्रस्तावना स्वयं यीट्स ने लिखी और सितम्बर 1912 में अंग्रेजी अनुवाद की कुछ प्रतियां इंडिया सोसायटी के सहयोग से प्रकाशित हुई। मार्च 1913 में लंदन की मैकमिलन एंड कंपनी ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवम्बर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापे गए।
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में बंग-भंग विरोधी आन्दोलन का बड़ा महत्व रहा है, जिसमें समूचे भारत के देशभक्त नागरिकों ने एकजुट होकर ब्रिटिश सरकार को झुकने पर विवश कर दिया था। उसी दौरान टैगोर ने 1905 में बांग्ला में एक गीत लिखा था,
आमार शोनार बांग्ला,आमि तोमाए भालोबाशी।चिरोदिन तोमार आकाश,तोमार बाताश,आमार प्राने बजाए बाशी।
इसका अर्थ है कि मेरा सोने जैसा बंगाल, मैं तुमसे प्यार करता हूं। सदैव तुम्हारा आकाश, तुम्हारी वायु, मेरे प्राणों में बांसुरी-सी बजाती है। हालांकि जिस समय उन्होंने इस गीत की रचना की थी, उस समय उन्होंने स्वयं कल्पना नहीं की होगी कि करीब 66 वर्षों बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आएगा और उनका यही गीत उसका राष्ट्रगान बन जाएगा। उनकी कुछ कविताएं तो बांग्लादेश के स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा भी है। जहां तक भारत के राष्ट्रीय गीत ‘जन गण मन’ की बात है कि इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दूसरे दिन का काम शुरू होने से पहले 27 दिसम्बर 1911 को पहली बार गाया गया था। हालांकि उस दौरान इस बात को लेकर भी कुछ विवाद चला कि कहीं उन्होंने यह गीत अंग्रेजों की प्रशंसा में तो नहीं लिखा लेकिन इसके रचयिता टैगोर ने स्पष्ट करते हुए कहा था कि इस गीत में वर्णित ‘भारत भाग्य विधाता’ के केवल दो ही अर्थ हो सकते हैं, देश की जनता या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला, फिर चाहे उसे भगवान कहें या देव।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रीयता, देशभक्ति, तर्कशक्ति इत्यादि विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग राय रखते थे लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत सम्मान भी किया करते थे। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद टैगोर को गांधीजी ने ही सर्वप्रथम ‘गुरुदेव’ कहा था जबकि गांधीजी को महात्मा की उपाधि टैगोर ने दी थी। उन्होंने 12 अप्रैल 1919 को गांधीजी को ‘महात्मा’ का सम्बोधन करते हुए एक पत्र लिखा था, उसके बाद ही गांधीजी को महात्मा कहा जाने लगा। ब्रिटिश सरकार द्वारा गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को 3 जून 1915 को ‘नाईटहुड’ की उपाधि से नवाजा गया था लेकिन 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड में सैकड़ों निर्दोषों के नरसंहार की घटना से उन्हें इतना गहरा आघात लगा कि क्षुब्ध होकर उन्होंने यह उपाधि ब्रिटिश सरकार को वापस लौटा दी थी। हालांकि अंग्रेजों ने उनको यह उपाधि वापस लेने के लिए खूब मनाया मगर वह राजी नहीं हुए।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मात्र आठ वर्ष की आयु में अपनी पहली कविता लिखी थी और 16 वर्ष की आयु में कहानियां तथा नाटक लिखना शुरू कर दिया था। बैरिस्टर बनने के सपने के साथ वह 1878 में इंग्लैंड चले गए थे लेकिन दो ही वर्ष बाद डिग्री लिए बिना ही भारत लौट आए। 1901 में सियालदह छोड़कर पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांतिनिकेतन में आने के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वहां प्रकृति की गोद में खुले प्राकृतिक वातावरण में वृक्षों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ केवल पांच छात्रों के साथ छोटे से ‘शांति निकेतन स्कूल’ की स्थापना की, जो 1921 में ‘विश्वभारती’ नाम से एक समृद्ध विश्वविद्यालय बना।। 1919 में उन्होंने शांतिनिकेतन कला के एक स्कूल ‘कला भवन’ की भी नींव रखी, जो दो साल बाद विश्वभारती विश्वविद्यालय का हिस्सा बन गया। शांति निकेतन में ही गुरुदेव ने अपनी कई साहित्यिक कृतियां लिखी और यहां मौजूद उनका घर आज भी ऐतिहासिक महत्व का है। उनका ज्यादातर साहित्य काव्यमय रहा और अनेक रचनाएं गीतों के रूप में प्रसिद्ध हैं। 1880 के दशक में उन्होंने कविताओं की कई पुस्तकें प्रकाशित की और 1890 में ‘मानसी’ की रचना की।
कविता, गान, उपन्यास, कथा, नाटक, प्रबंध, शिल्पकला इत्यादि साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा है, जिसमें उनकी रचना न हो। उनकी प्रमुख रचनाओं में गीतांजलि, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया हैमांति, क्षुदिता, मुसलमानिर गोल्पो आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कई किताबों का अनुवाद अंग्रेजी में किया, जिसके बाद उनकी रचनाएं पूरी दुनिया में पढ़ी और सराही गई। उपन्यास में गोरा, चतुरंगा, नौकादुबी, जोगजोग, घारे बायर, मुन्ने की वापसी, अंतिम प्यार, अनाथ इत्यादि गुरुदेव के कुछ प्रमुख उपन्यास हैं। इनके अलावा काबुलीवाला, मास्टर साहब, पोस्टमास्टर इत्यादि उनकी कई कहानियों को भी बेहद पसंद किया गया। अपने जीवनकाल में गुरुदेव ने करीब 2230 गीतों की रचना की और बांग्ला साहित्य के जरिये भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान डाली। अपनी अधिकांश रचनाओं में उन्होंने इंसान और भगवान के बीच के संबंधों तथा भावनाओं को उजागर किया।
मानवता को राष्ट्रवाद से बड़ा मानने वाले गुरुदेव ने कहा था कि जब तक मैं जिंदा हूं, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा। राष्ट्रवाद को लेकर वह अपने लेखन में आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखते थे। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस की पत्नी अबला बोस की आलोचना का जवाब देते हुए उन्होंने एकबार कहा था कि देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता है। राष्ट्रवाद पर उन्होंने 1916-17 के दौरान जापान और अमेरिका की यात्रा के दौरान कई वक्तव्य दिए थे। ऐसे ही एक वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि और राजनैतिक शक्ति में बढ़ोतरी करने में इस्तेमाल की गई है। शक्ति की बढ़ोतरी की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा और भय का वातावरण बनाकर मानव जीवन को अस्थिर और असुरक्षित बना दिया है। उनका कहना था कि दुर्बल और असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार करने की कोशिश राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इससे पैदा हुआ साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता है।
भारत के संदर्भ में उनका कहना था कि भारत भले ही पिछड़ा हो लेकिन उसमें मानवीय मूल्यों में पिछड़ापन नहीं होना चाहिए। गुरुदेव के अनुसार निर्धन भारत भी विश्व का मार्गदर्शन कर मानवीय एकता में आदर्श को प्राप्त कर सकता है। गुरुदेव ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित दर्जनों देशों की यात्राएं की। स्वामी विवेकानंद के बाद वे दूसरे ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने विश्व धर्म संसद को दो बार सम्बोधित किया। बहुआयामी प्रतिभा के धनी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रोस्टेट कैंसर के कारण 7 अगस्त 1941 को कोलकाता में अंतिम सांस ली।
2021-05-06