बंगाल विधानसभा चुनाव में नोटा ने बिगाड़े कई सीटों के समीकरण

कोलकाता, 06 मई (हि.स.)। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ‘नोटा’ विकल्प के प्रति मतदाताओं का रुझान बहुत अधिक नहीं रहा है लेकिन इसके चलते राज्य की कुछ सीटों पर राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों  का खेल जरूर बिगड़ा है।  

‘नोटा’ यानी नान ऑफ द एबभ (उपरोक्त में से कोई नहीं) मतदाताओं को अपनी नापसंदगी जाहिर करने का अवसर देता है। ईवीएम में विभिन्न पार्टियों के प्रतीक चिन्हों के साथ दिये गये नोटा विकल्प के जरिए मतदाता यह जाहिर कर सकता है कि उसे कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है। भारत में हुए अब तक के चुनावों में नोटा की कोई बहुत बड़ी भूमिका सामने नहीं आई है लेकिन कई बार यह उम्मीदवारों की चुनावी समीकरण को बनाने या बिगाड़ने में खासा असरदार रहा है। 

भारत के बाहर दूसरे देशों में ऐसे कई उदाहरण हैं जब नोटा की वजह से पूरी चुनाव प्रक्रिया प्रभावित हुई हो।  उदाहरण के लिए 90 के दशक में रूस में नोटा वोटों के चलते 200 सीटों पर नए उम्मीदवार देकर दोबारा चुनाव कराने पड़े थे क्योंकि उससे पूर्व हुए चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के सौ से अधिक उम्मीदवार नोटा से पराजित हुए थे। इसी तरह 2012 में सर्बिया के संसदीय चुनाव में एक सीट पर नोटा की जीत हुई थी।

भारत में सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में चुनाव आयोग को नोटा का विकल्प शामिल करने की अनुमति दी थी।  तब से लेकर अब तक हर चुनाव में कमोबेश मतदाता नोटा का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बार के बंगाल विधानसभा चुनाव में कुछ संगठनों ने राजनीतिज्ञों पर दबाव बनाने के उद्देश्य से चुनाव से ठीक पहले मतदाताओं से नोटा का विकल्प चुनने की अपील की थी। कोलकाता स्थित गृह मालिकों के संगठन कैल्काटा हाउस ओनर्स एसोसिएशन ने बकायदा संवाददाता सम्मेलन बुलाकर कोलकाता के गृह मालिकों से नोटा का बटन दबाने की अपील की थी। इस अपील के बारे में संगठन के सचिव सुकुमार रक्षित ने बताया कि हमने नोटा का आह्वान इसलिए किया था ताकि नेताओं को एक संकेत मिले। मतदाताओं पर उसका कितना प्रभाव पड़ा है यह कहना मुश्किल है।

बहरहाल, बंगाल विधानसभा चुनाव में एक बार फिर मतदाताओं ने नोटा का विकल्प इस्तेमाल जरूर किया है। कुछ सीटों पर जीत हार में भी नोटा की बड़ी भूमिका रही है। उदाहरण के लिए कूचबिहार जिले की दिनहाटा विधानसभा सीट  से भाजपा सांसद निशिथ प्रमाणिक महज 57 वोटों से चुनाव जीतने में सफल रहे। यहां विजयी एवं पराजित उम्मीदवारों के बीच महज 0.42 प्रतिशत मतों का अंतर रहा है। इस सीट पर नोटा मतों की संख्या 1537 रही है। इससे समझा जा सकता है कि अगर नोटा का विकल्प नहीं होता तो शायद नतीजे कुछ और होते। 

चुनाव आयोग के आंकड़ों  के अनुसार चार राज्यों के चुनाव में असम में 1,54,399, केरल में 91,715, पुडुचेरी में 9,006 तथा तमिलनाडु में 1,84,604 वोट नोटा के खाते में गए जबकि पश्चिम बंगाल में नोटा मतों की संख्या 5,23,001 रही है। इन आंकड़ों से साफ है कि अन्य राज्यों की तुलना में पश्चिम बंगाल में नोटा का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ है। कई सीटों पर कुल मतों का  एक प्रतिशत से भी कम वोट नोटा में पड़े हैं। इनमें हावड़ा जिले की आमता (1302 वोट), कोलकाता की एंटाली (991), वर्धमान की पूर्व स्थली उत्तर (1350), कोलकाता पोर्ट (1360), एवं बाली (1205) शामिल हैं।  जिन सीटों पर एक प्रतिशत से अधिक मत नोटा के खाते में गए हैं उनमें कोलकाता की चौरंगी (2713), दमदम (2039), कस्बा (2476), काशीपुर बेलगछिया (1439), जादवपुर (2713), तारकेश्वर (2752), हावड़ा दक्षिण (2948), बोलपुर (3337), दार्जिलिंग (2540), तथा आउसग्राम (4039) शामिल हैं।

भारत में अब तक हुए लोकसभा या विधानसभा चुनावों में ऐसा उदाहरण नहीं मिला है जहां नोटा में सबसे अधिक वोट पड़े हों। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में 118 सीटों पर नोटा तीसरे स्थान पर रही थी। पूरे राज्य में कांग्रेस, भाजपा और निर्दलीय उम्मीदवारों को मिले मतों के बाद ही नोटा का नंबर रहा था। 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में नोटा को सीपीएम, बसपा जैसी पार्टियों से अधिक वोट मिले थे? उसी साल  मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों का अंतर सिर्फ 0.1 प्रतिशत  का था वही नोटा के हिस्से में 1.4 प्रतिशत  वोट पड़े थे।

नोटा का विकल्प अभी तक पसंद नापसंद जाहिर करने का ही माध्यम बना रहा है। इस विकल्प के जरिए एक मतदाता अपने क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों के प्रति नापसंद जाहिर कर सकता है। नोटा विकल्प की वजह से राजनीतिक दलों पर अतिरिक्त दबाव रहता है और वे मतदाताओं के प्रति अधिक जिम्मेदार रहने की कोशिश करते हैं। 

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