जौनपुर ,25 अगस्त (हि.स.)। प्राचीन काल से चली आ रही ललही छठ माता की पूजा की परंपराएं आज भी जीवित हैं। इसे महिलाओं द्वारा बड़ी ही निष्ठा पूर्वक और धूमधाम से किया जाता है। जिले में ललही छठ का पर्व रविवार को आस्था के साथ मनाया गया। शहर से लेकर गांव के अनेक स्थानों पर महिलाओं पर महिलाओं ने सामूहिक रूप से पूजन किया और दही तथा महुआ के साथ अन्य फल आदि प्रसाद में चढ़ाया और संतान की लम्बी आयु के लिए व्रत रखा। इस व्रत की सबसे खास बात यह है कि यह व्रत सिर्फ वही माँ कर सकती हैं जिनके पुत्र होता है।
ज्ञात हो कि भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ललही छठ व्रत का त्योहार मनाया जाता है। ललही छठ को हल षष्ठी या हल छठ भी कहा जाता है। दरअसल, इसे बलराम के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से ठीक दो दिन पूर्व उनके बड़े भाई बलराम जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म भादों मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हुआ था। इसलिए इस दिन को बलराम जयंती भी कहा जाता है। बलराम को बलदेव, बलभद्र और बलदाऊ के नाम से भी जाना जाता है। बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है।बलराम को हल और मूसल से खास प्रेम था। यही उनके प्रमुख अस्त्र भी थे। इसलिए इस दिन किसान हल, मूसल और बैल की पूजा करते हैं।इसे किसानों के त्योहार के रूप में भी देखा जाता है।बेटे की लंबी आयु के लिए माँ इस दिन व्रत रखती हैं। वह अनाज नहीं खाती हैं। इस दिन व्रत रखने वाली माताएं महुआ की दातुन करती हैं। इस दिन तालाब में उगे अनाज जैसे कि तिन्नी या पसही के चावल खाकर व्रत रखा जाता है। गाय का दूध और दही का इस्तेमाल भी इस व्रत में वर्जित होता है। भैंस का दूध, दही और घी का प्रयोग किया जाता है।इस व्रत की पूजा हेतु भैंस के गोबर से पूजा घर में दीवार पर हर छठ माता का चित्र बनाया जाता है। गणेश और माता गौरा की पूजा की जाती है। कई जगहों पर महिलाएं तालाब के किनारे या घर में ही तालाब बनाकर, उसमें झरबेरी, पलाश और कांसी के पेड़ लगाती हैं। इस तालाब के चारों ओर आसपास की महिलाएं विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर हल षष्ठी की कथा सुनती हैं। अपने बेटे की लंबी आयु के लिए कामना करती हैं तथा अंत आपस में एक दूसरे को प्रसाद वितरण करती हैं। इस व्रत को करने वाली माता शशि कला श्रीवास्तव ने बताया कि इस पूजन का विशेष महत्व पुत्रों के लिए होता है। साथ ही घर परिवार में सुख-शांति व संपदा बनी रहे,इसके लिए भीयह व्रत होता है। ऐसी मान्यता है कि जिन माता को पुत्र न हो, इस व्रत को विधि विधान से करें तो उन्हें पुत्र की प्राप्ति अवश्य होती है।