अजय कुमार शर्मा
किशोर साहू चालीस-पचास के दशक के प्रख्यात निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और लेखक थे। बॉम्बे टॉकीज की “जीवन प्रभात” (1937) फिल्म से नायक के रूप में उनका कैरियर शुरू हुआ था। अपनी दूसरी फिल्म “बहूरानी” से वे निर्माता, निर्देशक, पटकथा एवं संवाद लेखन भी बन गए थे। 2 जून 1940 को रिलीज हुई यह एक सफल फ़िल्म थी। निर्देशन में उनके सहयोगी के रूप में दो नाम जुन्नरकर एवं मुबारक के भी दिए गए थे जबकि निर्देशन स्वयं उन्होंने ही किया था। उनके द्वारा स्वतंत्र रूप से निर्देशित पहली फिल्म थी ‘कुँआरा बाप’। हालांकि पहले वे इसके सह-निर्देशक थे लेकिन नियति ने ऐसे रंग बदले कि वह इसके निर्देशक, पटकथा लेखक भी बन गए। हुआ यह कि बॉम्बे टॉकीज की “पुनर्मिलन” फिल्म जिसमें वे नायक थे की सफलता के बाद प्रसिद्ध फिल्म निर्माता कीकूभाई देसाई उनसे मिलने आए। उनके पास एक सामाजिक फिल्म ‘कुँआरा बाप’ की कहानी थी और वह चाहते थे कि साहू उसमें नायक का रोल करें। किशोर साहू ने यह रोल दो शर्तों पर स्वीकार किया कि फिल्म की पटकथा वह लिखेंगे और निर्देशन भी वही करेंगे। कीकूभाई देसाई पहले ही जे .पी. अडवानी को उसका निर्देशक नियुक्त कर चुके थे। इसलिए बात उनके सहनिर्देशक बनने पर तय हुई। पटकथा लिखने की शर्त पर उन्हें कोई ऐतराज़ न था। किशोर साहू की सलाह से अन्य पात्र चुने जाने लगे। फिल्म की नायिका के लिए प्रतिमा दासगुप्ता को चुना गया जो वाडिया मूवीटोन की फिल्म “कोर्ट डांसर” में नायिका साधना बोस की सहेली का रोल करके लोगों की पसंद बनी हुई थीं। प्रतिमा दासगुप्ता बंगालिन थी, साँवली थी, आकर्षक थी और उनकी शरीर-रचना और स्वभाव में कुछ मर्दानगी और तेजी थी। उनके पास उस समय बेबी ऑस्टिन की रेसिंग कार थी, जो वह खुद चलाती थीं। इस गाड़ी की आवाज रेसर कार जैसी हुआ करती थी। शादीशुदा प्रतिमा की अपने पति मंजूर उल हक से बनती न थी। प्रतिमा की कई लोगों से मित्रता को मंजूर शक और ईर्ष्या की दृष्टि से देखते और कई बार रूठकर बीकानेर, दिल्ली चले जाते तो महीनों नहीं आते। प्रतिमा उनसे तलाक चाहती थी। प्रतिमा किशोर साहू को अपने जीवन की हर एक बात बता देती थी। समझ- बूझ की नींव पर रखी दोनों की मित्रता घनिष्ठ होकर स्थायी रूप से लंबे समय तक टिकी रही। प्रतिमा से उनकी निकटता उन दिनों फिल्म जगत में चर्चा का विषय बन गई। पत्र-पत्रिकाओं में तरह-तरह के लेख छपने लगे। फिल्मी दुनिया में ऐसे ‘गुप्त प्रणय’ की प्रसिद्धि से नायक-नायिका को विशेष ख्याति मिलती है और उनका मूल्य अधिक बढ़ जाता है। प्रतिमा और किशोर साहू के साथ भी यही हो रहा था। दोनों ने इन टीका-टिप्पणियों का खंडन कभी नहीं किया।इस फिल्म में ई .बिली मोरिया को खलनायक के रूप में लिया गया था। लेकिन पहले दिन की शूटिंग से ही दोनों निर्देशको में वाद विवाद शुरू हो गया। दोनों में रोज लड़ाई होती और दिन में कम से कम दस बार वे लोग लड़ते हुए फिल्म के निर्माता कीकूभाई के पास जाते। क्योंकि अडवानी सीनियर थे और चालीस फिल्मों का निर्देशन कर चुके थे इसलिए अमूमन वे उनका ही पक्ष लेते और कभी कभी उनका भी। ऐसे हालात में टीम में फूट पड़ गई। कुछ सीनियर लोग अडवानी की तरफ थे तो प्रतिमा एवं नई पीढ़ी के कलाकार किशोर साहू की तरफ। लेकिन शूटिंग के नवें दिन ही कीकूभाई देसाई अपेंडिक्स के कारण अचानक बीमार हुए और उनका देहांत हो गया। ‘कुँआरा बाप’ की शूटिंग रोक दी गई। इस बीच एन. आर. आचार्य जो बॉम्बे टॉकीज में निर्माण प्रबंधक हुआ करते थे और बाद में निर्देशक भी हुए ने अपनी फिल्म निर्माण संस्था आचार्य आर्ट प्रोडक्शंस बनाई और किशोर साहू को भी उसमें शामिल होने के लिए बुलाया। दो फिल्म बनाने की बात हुई। तब किशोर साहू ने श्रीमती कीकूभाई से ‘कुँआरा बाप’ के अधिकार खरीद लिए और आचार्य की कंपनी के साथ इस फिल्म का निर्माण शुरू हुआ। अब वह फिल्म के निर्देशक थे। उन्होंने इस फिल्म के संवाद लिखने के लिए प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर को अनुबंधित किया। वे उन दिनों बंबई में ही फिल्मों में काम करने के विचार से आए हुए थे और शिवाजी पार्क में साहू के फ्लैट के नीचे ही शेरा विला में फ्लैट लेकर ले रहे थे और अपने परिवार को लखनऊ से बंबई बुला लिया था। शूटिंग के पहले दिन के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि, “अपने दिग्दर्शन का पहला दिन, कभी न भूलूँगा। मैं सुबह से ही उत्तेजित था। स्टूडियो में पूजा समाप्त हुई थी और लाइटिंग (प्रकाश व्यवस्था) हो रही थी। मुहूर्त में पधारे हुए अतिथियों की खासी भीड़ थी। सबकी आँखें मुझ पर जमी हुई थीं, क्योंकि मैं दिग्दर्शक था और वह मेरा प्रथम दिग्दर्शन था। मुझसे अपेक्षा की जा रही थी कि मैं साउंड (ध्वनि) चालू करवाऊँ। शॉट प्रतिमा दासगुप्ता पर लिया जाने वाला था। मैंने आज्ञा दी: ‘साउंड स्टार्ट।’ लाउडस्पीकर में साउंड रेकार्डिस्ट की आवाज गूंज उठी : ‘स्टार्टेड।’मैंने कहा: ‘कैमरा !’ और कैमरा चलने लगा।’ एक्शन !’ मैंने कहा, और शूटिंग शुरू हो गई। जब मैंने थोड़ी देर बाद ‘कट’ कहा, तो उपस्थित जनों की तालियों से स्टूडियो गूंज उठा। शॉट ओ.के. था। मैं दिग्दर्शक बन चुका था।सबसे पहले बधाई प्रतिमा ने दी। इस मेहनत का पारितोषिक मिलने में विलम्ब न हुआ। ‘कुँआरा बाप’ मेरा पहला दिग्दर्शित चित्र ‘बॉक्स ऑफिस’ में अति सफल रहा। यह लगभग हिन्दी में पहला हास्य चित्र था जिसने इतनी सफलता प्राप्त की थी। मैं दिग्दर्शक ही नहीं, सफल दिग्दर्शक बन गया।,”
चलते चलते
फिल्म का यह मुहूर्त शॉट प्रतिमा पर फिल्माया गया था और उन्होंने इस पर ऐसी शरारत की कि किशोर साहू हक्के-बक्के रह गए। उस दिन प्रतिमा ने नीली रेशमी साड़ी पहनी थी। जैसे ही किशोर साहू ने ‘कैमरा’ कहा कि अचानक प्रतिमा ने उनकी तरफ़ देख कर आँख मार दी। किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि पता नहीं, मैं चक्कर खाकर गिर क्यों न पड़ा। बदन में ठंडा पसीना फूट निकला और गले में जैसे कुछ अटकने लगा। लेकिन शायद इसलिए कि अभिनेता था, मैं सँभल गया। देखा अनदेखा कर मैंने कहा कैमरा। शॉट खत्म होने पर प्रतिमा ने हाथ मिलाते हुए शरारतन कहा,’बाप रे,’ ‘तुम्हारे हाथ तो बर्फ हुए जा रहे हैं।’ जबकि हाथ ही क्यों, वे तो समूचे ही बर्फ हुए जा रहे थे….
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