हृदयनारायण दीक्षित
इतिहास भूत होता है। इसमें जोड़-घटाव उचित नहीं होता। हम चाहकर भी भूतकाल नहीं बदल सकते। लेकिन भूत इतिहास बनता है। अनुभूत समाज की भावशक्ति पाता है। वह काव्य बनता है। ऋचा या मंत्र बनता है। वह इतिहास में हस्तक्षेप नहीं करता। वह इतिहास को सौन्दर्य देता है। इतिहास और सुंदरता में प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं होते। सुंदरता की अनुभूति का स्रोत भावशक्ति है। इतिहास का स्रोत भूत-सत्य है। श्रीकृष्ण इतिहास के महानायक हैं। उन्हें भारत की भावशक्ति मिली। वे गीत बने। काव्य बने। उनका चलना-फिरना भी गीत नृत्य हो गया। उनके कारण यमुना प्यार की नदी हो गई। उनकी बांसुरी के सुर, राग, लय ने इतिहास को मनोरम बनाया। उनका शिशुकाल भी गीत भजन और स्मरणीय काव्य बना। मथुरा-वृन्दावन भारतीय भूगोल का भाग है। श्रीकृष्ण के जीवन की ऐतिहासिक घटनाओं के भी साक्ष्य हैं लेकिन इससे भी ज्यादा वे भारतीय भावशक्ति के ‘मिथक’ हैं।
इतिहास लौकिक होता है। लोकभाव की शक्ति अपने प्रिय को लोक के परे भी देखती है। जैसे प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं पड़ती, वैसे ही प्रेमपूर्ण चित्त को प्रमाण बेकार लगते हैं। हम इतिहास की पोथी पढ़कर राधाकृष्ण का प्रेमतत्व नहीं जान सकते। प्रेममय चित्त बड़ी सरलता से लौकिक को अलौकिक बनाते हैं। वे इस जीवन के बाद भी प्रेमी बने रहने का संकल्प लिया करते हैं। प्रेम और इतिहास में कोई दुश्मनी नहीं। प्रेम गीतों में भी इतिहास हो सकता है और इतिहास में भी प्रेम के कथानक। प्रेमी आकाश में उड़ते, तमाम जन्मों में मिलते बिछुड़ते गाए जाते हैं। वे स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा पर होते हैं। ऐसे प्रेमी इतिहास के चरित्र भी हो सकते हैं लेकिन इतिहास उन्हें आकाशचारी नहीं दर्ज करता। श्रीकृष्ण इतिहास में हैं। भाव में हैं। प्रेम में है। वे प्रेम रस का परम चरम है। तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने संपूर्णता या ब्रह्म को ‘रस-रसो वै सः’ गाया है। वैसे ही रस या महारस हैं श्रीकृष्ण। वे स्वयं महारस भी हैं और उस रस का आनंद लेने वाले रसिक बिहारी भी हैं। वे ज्ञाता हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान भी हैं। प्रकृति सृजन का चरम परम है लेकिन जिस प्रकृति ने उन्हें रचा है, वह प्रकृति भी उन्हीं के मार्गदर्शन में चलती है।
राधाकृष्ण का प्रेम लौकिक है। अध्यात्म भी है। यहां दो हैं राधा और कृष्ण। राधा होना चाहती है कृष्ण। बिना कृष्ण हुए राधा का प्यार आधा है। इस प्यार को पकने पकाने के लिए श्रीकृष्ण की आंच और ऊष्मा चाहिए। श्रीकृष्ण की प्रीति ऊष्मा भी सहज नहीं। राधा यह बात जानती ही रही होगी कि वे मिलें हमसे और मैं राधा न रहूं। श्रीकृष्ण से मिलूं और श्रीकृष्ण ही हो जाऊं। श्रीकृष्ण तो सबकुछ जानते ही थे। राधा सामान्य नायिका नहीं है। वे धारा के विपरीत हैं। धारा शब्द को उलटने से ही शब्द राधा बनता है। राधा का संस्पर्श भी श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण नहीं रहने देगा। अग्नि आंच दोतरफा है। दोनों की आंच के कारण दोनो का अलग अस्तित्व बचना मुश्किल। लेकिन राधा तैयार है। उन्हें निजी अस्तित्व की चिंता नहीं। राधा मिली श्रीकृष्ण से और श्रीकृष्ण मिले राधा से। वे दो थे। एक हो गए। फिर एक भी नहीं बचा। अद्वैत घटित हो गया। पुराणकार लिख सकते थे कि तब देवताओं ने इस महामिलन पर आकाश से फूल बरसाए। लेकिन राधा माधव की प्रीति के लिए देवों की पुष्पवर्षा की जरूरत हीं नहीं थी। इस प्रीति को देखकर मथुरा-वृंदावन और बरसाना के फूल स्वयं ही लहके। उनकी सुगंध आज भी अनुभव की जा सकती है।
सोचता हूं कि तब आकाश में बिना बादल ही ‘घनश्याम’ आ गए होंगे। ऋत सत्य ने गति दी होगी। राधाकृष्ण प्यार की ऊष्मा के जलकण आकाश पहुंचे होंगे। इस महाप्रीति से पर्जन्य ने कृति आकार लिया होगा। ये पर्जन्य और कोई नहीं हम सबके प्रिय घनश्याम ही हैं। गीता में उन्होंने स्वयं को 12 मासों के चक्र में अगहन-मार्गशीर्ष बताया है। उसके अपने कारण हैं। उनका जन्म कड़कते बादलों के समय हुआ। उस मुहूर्त में सब तरफ पर्जन्य घनश्याम थे। धरती तक उतर आए थे वे। यमुना भावविह्वल होकर उमड़ पड़ीं थी तब। इतिहासकार की सीमा है। पर्जन्य इतिहास का उपकरण नहीं हैं। बांके बिहारी की छवि मस्तिष्क की समृद्धि नहीं है। मोर मुकुट का प्राकृतिक सौन्दर्य इतिहास की विषय वस्तु नहीं है। माखन चोरी की प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी थाने का अभिलेख नहीं है। गोपियों के बीच नृत्य और रास का वीडियो वायरल नहीं हुआ। प्रेम उल्लास नापने का कोई यंत्र न उस समय था और न ही अब तक बन पाया है। भाव जगत् निस्संदेह इसी प्रत्यक्ष जगत् का हिस्सा है लेकिन यह जगत प्रत्यक्ष है। सो इस भूत की स्मृति है। स्मृति का इतिहास है। भावजगत् का इतिहास लिखें तो कैसे लिखें?
भारत का मन श्रीकृष्ण में आनंदरस पाता है। आनंदरस की प्यास कभी तृप्त नहीं होती। जितना पीते हैं, उतना ही यह प्यास और ज्यादा बढ़ती है। प्रेम तृत्प नहीं होता। न मिलने से और न ही दूर रहने में। जो तृप्ति दे वह प्रेम नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण प्रेम अवतार है। उनके भजन, कीर्तन, लीला और नाटक हम सबकी तृप्ति और बढ़ाते हैं। अनंत अनंत होता है। तृप्ति का अंत नहीं होता। श्रीकृष्ण अनंत हैं। उनकी कथा अनंत है। हरि अनंत हरि कथा अनंता। थोड़ा इतिहास की शरण लें। तब बौद्ध पंथ भारत को आच्छादित कर रहा था। संभवतः दो क्षेत्रों में इसका प्रभाव नहीं पड़ा। पहला क्षेत्र वृंदावन था और दूसरा काशी। बुद्ध के अनुसार यह संसार दुखमय लेकिन वृंदावन में यह संसार नृत्यपूर्ण था। नृत्य में दुख की जगह कहां होती है? रास अपने आपमें आनंद है। उन्हें कैवल्य की जरूरत ही नहीं। उद्धव को गोपियों ने यही उत्तर दिया था। हमारा सब कुछ श्याम के संग और रंग में है। हम निर्गुण अद्वैत का क्या करें? अद्वैत में वे भी थीं पर इस अद्वैत में इन्द्रधनुष था। श्रीकृघ्ण की प्रीति के रंगों में रचा बसा था यह अद्वैत।
वामपंथी मित्र कहते हैं कि श्रीकृष्ण काव्य कल्पना हैं। इतिहास के पात्र नहीं। हम कहते हैं कि मथुरा इतिहास है, यमुना इतिहास है। गोवर्द्धन इतिहास है। नन्दगांव इतिहास है। कुरु क्षेत्र इतिहास है। युद्ध इतिहास है। हस्तिनापुर अभी भी है। यह भौगोलिक क्षेत्र है। सो है। इसलिए इतिहास है। श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष नहीं हैं, क्योंकि वे इतिहास हैं। वे हमारी नस-नस में हैं। हमारे अन्तःकरण में उनकी बांसुरी बजती है। यह हमारा अंतःकरण है। डाॅ. लोहिया ने इसी अंतः क्षेत्र की बात की थी कि श्रीकृष्ण को इतिहास के पर्दे पर उतारने की कोशिश न करना। हम सादर जोड़ते हैं कि इतिहास का पर्दा छोटा है। प्रेमगली संकरी है। इससे होकर प्रेम ही गुजर सकता है। दो नहीं निकल सकते। इतिहास के पास श्रीकृष्ण को समेटकर रखने की जगह नहीं। श्रीकृष्ण प्रेम हैं। महाप्रेम के इस महानायक को इतिहास के साथ अपने हृदय में भी खोजना चाहिए। साधारण मुद्रा में नहीं, नाचते हुए। श्रीकृष्ण सतत् नाचते हुए पूर्वज हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर बधाई।