आर.के. सिन्हा
राजधानी दिल्ली में इस बार मानसून के मौसम में हो रही भारी बारिश से हाहाकर मचा हुआ है। बारिश के पानी के कारण हो रहे जलभराव में लोग डूब रहे हैं या फिर पानी में खुली बिजली तारों से करंट फैलने से लोगों की जान जा रही है। ये हादसे दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार की काहिली और नकारापन की चीख-चीख कर पुष्टि कर रहे हैं। यूं तो हरेक बारिश के मौसम में दिल्ली में जलभराव के कारण लगने वाले लंबे जाम के कारण लाखों लोगों की जिंदगी दूभर हो ही जाती है। पर इस बार बारिश के कारण यहां वहां जमा पानी में लोगों की डूबने के कारण अनेकों जानें भी जा रही हैं। साफ है कि जिन सरकारी एजेंसियों, अफसरों और कर्मियों पर देश की राजधानी को ठीक-ठाक रखने की जिम्मेदारी है, वह अपने दायित्वों को लेकर कतई गंभीर नहीं हैं। इन सरकारी महकमों में व्यापक करप्शन भी इस कर्तव्यहीनता का मुख्य कारण है।
कुछ दिन पहले संसद भवन से करीब पांच किलोमीटर दूर ओल्ड राजेन्द्र नगर में तीन नौजवानों की तब डूब कर मौत हो गई जब वे बेसमेंट में बैठकर पढ़ रहे थे और वहां पानी भर गया था। दिल्ली की मेयर शैली आनंद के क्षेत्र से ओल्ड राजेन्द्र नगर की एक किलोमीटर भी नहीं है। इसके बावजूद वहां इतना बड़ा हादसा हुआ। आम आदमी पार्टी के सांसद ओल्ड राजेन्द्र नगर से दो मिनट की दूरी पर स्थित न्यू राजेन्द्र नगर में रहते हैं। पर उनकी पार्टी ने उनकी भी कोई क्लास नहीं ली। हादसे के लिए मात्र दो-तीन निगम के निम्न वर्गीय कर्मियों को बर्खास्त कर दिया गया। सवाल यह है कि इस हादसे के लिए दिल्ली की मेयर ने अपने पद से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? हाल ही में बेल मिलने के बाद दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया जी अपनी दिल्ली सरकार के कामकाज की उपलब्धियां गिनवा रहे हैं। पर वे यहां जलभराव के कारण हुई मौतों पर चुप हैं। एक उम्मीद पैदा हुई थी कि ओल्ड राजेन्द्र नगर की भयानक घटना के बाद यहां नगर निगम कायदे से काम करने लगेगा। उस घटना से दिल्ली खासी व्यथित थी। जनता में गुस्सा था। पर नगर निगम का चाल-चरित्र-चेहरा नहीं बदला।
राजधानी में लोगों की जाने जाती रहीं, क्योंकि तेज बारिश के कारण सड़कों पर पानी भरना जारी रहा और सड़कों पर पैदल चलने वालों की जान पर बन आई। दो बच्चों की करंट लगने और डूबने से मौत हो गई। दिल्ली में इस मानसून में अब तक मरने वालों की अबतक ज्ञात कुल संख्या 33 हो गई है। इतने लोगों की मौत के बावजूद यहां पर सब कुछ सामान्य रफ्तार से चलना साबित करता है कि समाज अब पूरी तरह संवेदनहीन हो चुका है। वह कभी –कभार ही अपनी तीखी प्रतिक्रिया देता है।
देखिए, जलवायु संकट मानसून में अप्रत्याशित पैटर्न पैदा कर रहा है, जिससे छोटे, लेकिन बहुत भारी बारिश के झोंके अब सामान्य से हो गए हैं। इसके लिए ठोस योजना की आवश्यकता है, न कि बाद में किए जाने वाले उपायों की। पर हमारे यहां बदले हुए हालात के अनुसार नहीं चला जाता है। सब काम चालू तरीके से होता है। जाहिर है, इसके बहुत दूरगामी परिणाम झेलने पड़ते हैं। हम अपनी याददाश्त को अगर टटोलें तो पाएंगे कि पर्यावरण में सुधी जनों ने चेतावनी इसलिए ही बहुत पहले ही दी थी। यकीन मानिए हमारे बहुत सारे सरकरी विभागों को लकवा मार गया है। वहां कोई आगे बढ़कर स्वेच्छा से काम करने के लिए तैयार ही नहीं है। जाहिर है, इस मानसिकता के कारण ही बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं। यह सब होने के बाद भी सरकारी अफसरों और दिल्ली सरकार के मंत्री किसी भी प्रकार की जवाबदेही के लिए तैयार नहीं हैं। क्यों नहीं उनके खिलाफ सख्त एक्शन होता जिनकी वजह से लोग मारे जा रहे हैं या दिल्ली पानी-पानी हो रही है।
अजीब सी स्थिति है कि एक तरफ दिल्ली बारिश के कारण डूब जाती है, दूसरी ओर दिल्ली वालों को पीने का साफ पानी तक नसीब नहीं होता। राजधानी में पानी से जुड़े सारे मामलों को दिल्ली जल बोर्ड देखता है। दिल्ली जल बोर्ड का सर्वाधिक हाल बेहाल है। दिल्ली की आप सरकार के मंत्री और नेता रोज केन्द्र सरकार पर आरोपों की बौछार करने का कोई भी अवसर जाने नहीं देते। वे चिर असंतुष्ट प्राणी हैं। उन्हें सबसे शिकायतें हैं। वह कभी खुद भी अपने गिरेबान में झांक तो लें। वह खुद कब इस सवाल का जवाब देंगे कि वह दिल्ली को पेयजल के संकट से फलां-फलां तारीख तक उबार देंगे ? दिल्ली का मतलब सिर्फ हरे-भरे पेड़ों से लबरेज नई दिल्ली का लुटियन क्षेत्र ही नहीं है। राजधानी का मतलब दक्षिण दिल्ली, उत्तर दिल्ली, पश्चिम दिल्ली या यमुना पार की सभ्रांत आवासीय कॉलोनियां भी नहीं है। दिल्ली के लाखों नागरिक उन अनधिकृत कॉलोनियों, घनी बस्तियों, झुग्गियों में भी जीवन यापन करने के लिए अभिशप्त हैं,जहां पर पीने का पानी मयस्सर नहीं है। जरा सोचिए कि किन हालातों में भीषण गर्मी के मौसम में लोग रहते होंगे। राजधानी के लाखों नागरिकों के घरों में पीने का पानी नहीं आता। यह अभागे हर रोज निजी जल आपूर्तिकर्ताओं अपने दिन भर के से उपयोग के लिये पानी खरीदते हैं। दस लाख की आबादी वाले संगम विहार में दिल्ली जल निगम से पानी की सप्लाई नहीं होती। यह हाल है दिल्ली का।
जल संकट से जूझ रहे दिल्ली में लगभग आधे जल निकायों का अतिक्रमण और अन्य कारणों की वजह से नष्ट हो जाना प्रशासनिक विफलता का संकेत है। दुनिया के सबसे अधिक जल संकट वाले शहरों में से एक, दिल्ली ने आधिकारिक तौर पर सूचीबद्ध अपने लगभग आधे जल स्रोतों को खो दिया है। जिस समय देश आजाद हुआ था, उस समय दिल्ली के 362 गांवों में 1012 तालाब थे। यह सरकारी आंकड़ा है। एक सर्वे में पता चला है कि दिल्ली में दो हजार से अधिक तालाब और बावड़ियाँ होती थी। आबादी बढ़ने और दिल्ली के विकास के साथ अधिकतर तालाब खत्म कर दिए गए। कई तालाबों पर कॉलोनियां बस गई। जो तालाब बचे हैं, उनमें से आधे से अधिक लगभग सूख चुके हैं। इन तालाबों को फिर से जीवित करना होगा। जानकार मानते हैं कि राजधानी में 500 से अधिक तालाब ऐसे हैं जिन्हें बारिश के पानी से पुनर्जीवित किया जा सकता है और बारिश की पानी से दिल्ली को जलमग्न होने से बचाया जा सकता है। बहुत साल पहले पानी-तालाब पर जीवन खपा देने वाले अनुपम मिश्र ने सुझाया था कि यमुना का भी पुनर्जीवन संभव है। अगर यमुना के किनारे वजीराबाद से ओखला के बीच बड़े तालाबों की एक श्रृंखला बनाई जाये।
यदि दिल्ली में हमने जल का सही तरह से संरक्षण करना नहीं सीखा तो यहां पर पानी को लेकर भविष्य के दिनों में भारी खून-खराबा होगा। अभी भी बहुत सी अनधिकृत बस्तियों में पानी को लेकर सुबह रोज झगड़े होते हैं। कत्ल तक हो चुके हैं। जल के स्रोत सीमित हैं। नये स्रोत हैं नहीं, ऐसे में जल स्रोतों को संरक्षित रखकर एवं जल को बचाकर ही हम जल संकट का सामना कर सकते हैं। इसके लिये हमें जल के उपयोग में मितव्ययी बनना पड़ेगा। जल प्रबंधन को बेहतर करना होगा। यदि वर्षाजल का समुचित संग्रह हो सके और जल के प्रत्येक बूंद को अनमोल मानकर उसका संरक्षण किया जाये तो जल संकट का समाधान संभव है।
राजधानी में रोज लाखों कारों और दूसरे वाहनों की धुलाई पर बहुत पानी बर्बाद हो जाता है। इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता कि इस लिहाज से पानी की बर्बादी कैसे रोकी जाए। दिल्ली को अब जल संरक्षण के मसले पर सेंसटिव होना होगा। अब पानी के इस्तेमाल में हमें मितव्ययी बनना होगा। छोटे-छोटे उपाय कर जल की बड़ी बचत की जा सकती है। मसलन हम दैनिक जीवन में पानी की बर्बादी कतई न करें। समाज को खुद ही अपने मसले हल करने होंगे। यहां की दिल्ली सरकार से अब कोई उम्मीद करना बेकार है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)