डॉ. प्रभात ओझा
1942 की अगस्त क्रांति के कारण जिस बलिया को ‘बागी बलिया’ कहा जाता है, यह अंग्रेजी शासन
के कतिपय रिकॉर्ड
में भी शामिल है। तब देश के तीन जिलों में स्वदेशी सरकार स्थापित हुई। उत्तर
प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के बलिया के अतिरिक्त वर्ष 1942 के उस अगस्त में और बाद तक भी देश के पूरब में मिदनापुर का तामलूक और
पश्चिम में सतारा के कुछ हिस्से भी आजाद हुए थे, परन्तु उन
दो जगहों पर एक केंद्रीकृत समानांतर व्यवस्था नहीं बन पाई थी। सतारा में ‘क्रांतिसिंह’ नाम से मशहूर नाना पाटिल अवश्य ही क्रांतिकारियों में प्रेरक बने रहे।
फिर भी वे पहले से ही भूमिगत रहते हुए समानांतर सरकार (पत्रि सरकार) का नेतृत्व
करते रहे। गांवों में कमेटियां बनाकर सरकार के समानांतर काम किए गए। मिदनापुर के
तामलूक में तो दिसंबर,1942 से सितंबर,1944 तक
जातीय सरकार (राष्ट्रीय सरकार) चली। तब राहत कार्य, स्कूलों
को अनुदान, आपसी समझौते के लिए अदालतें बनाना और धनी लोगों
के कुछ पैसे जरूरमंदों में बांटने तक के काम हुए। हालांकि कुछ भौगोलिक और शायद
प्राथमिकताओं के कारण इन दोनों स्थानों के आम लोगों को इसके लिए विदेशी शासन की
अमानुषिकता का शिकार नहीं होना पड़ा। इसके विपरीत, बलिया में
लोगों ने अंग्रेजों से सीधा मुकाबला किया। बलिया निवासियों ने कई जगह रेल लाइन
उखाड़ फेंका, ट्रेन लूट कर लूटा गया सामान आंदोलनकारियों को
सौंपने, थानों और स्थानीय कचहरियों पर कब्जा करने के बाद जिला मुख्यालय पहुंच कर
वहां बलिया की स्वदेशी सरकार स्थापित करने में मदद की। ‘शेर-ए-बलिया’
चित्तू पाण्डेय के नेतृत्व में अंग्रेजी शासन का खात्मा कर कुछ दिनों के लिए ही
सही, अपनी सरकार चलाई।
1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह से बलिया के गांवों में चेतना जरूर थी,
लेकिन वहां 1942 की अगस्त क्रांति को स्वतः
स्फूर्त ही कह सकते हैं। आंदोलन में दलगत सीमा नहीं रही और गांधीवादी, समाजवादी, गरम दल और कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर
मुस्लिम लीग तक के कुछ पढ़े-लिखे लोग शामिल थे। आठ अगस्त,1942 को तत्कालीन बंबई से गांधीजी के आह्वान के बाद बलिया शहर में 10 अगस्त को छात्र हड़ताल से शुरू इस कथा का पहला अध्याय जिले में स्वदेशी
सरकार की साहसपूर्ण स्थापना तक का है। इसी में से जो दूसरा अध्याय बना, उसमें ब्रिटिश सरकार के गवर्नर ‘जनरल’ हैलेट की ओर से बनारस के कमिश्नर नेदरसोल को बलिया के प्रभारी जिलाधिकारी
बनाने से शुरू होता है। इस अध्याय में नेदरसोल के नेतृत्व में बलूच फौज और स्थानीय
पुलिस का कहर बरपाना शामिल है। तब 23 अगस्त को बक्सर की ओर
से जलमार्ग से मार्क स्मिथ के नेतृत्व में और 24 अगस्त की
सुबह आजमगढ़ की ओर से कैप्टन मुर के साथ फौज के सिपाही बलिया पहुंचे थे।
24 अगस्त के पहले 19 अगस्त से साथियों संग जेल से छुड़ा लिए गए
चित्तू पाण्डेय जिले के कलेक्टर की कुर्सी पर थे, तो महानन्द
मिश्र को पुलिस कप्तान बनाया गया था। तब जिले के तहसीलों और थानों पर तिरंगा
लहराता रहा, तो एक तहसील में सरकारी खजाने से कर्मचारियों के
छह महीनों तक का अग्रिम वेतन देकर उन्हें स्वदेशी सरकार का हिस्सा बना लिया गया था।
अंग्रेजी सेना की टुकड़ियों ने 24 अगस्त से जगह-जगह लोगों के घर जलाए और गोली
बरसाए। इसके पहले सरकारी भवनों पर स्थानीय लोगों के कब्जे के दौरान भी बहुत से लोग
मारे गए, इनमें अकेले बैरिया थाने पर तिरंगा कायम रखने की
कोशिश में 13 ग्रामीण मौके पर ही शहीद हो गए थे। इस घटना में
गोली लगे युवक कौशल किशोर की रास्ते में तो छह अन्य लोगों की अस्पताल में मृत्यु
हो गई। उनकी याद में थाने के बाहर शहीद स्तंभ स्थापित है। बलिया शहर के गुदरी
बाजार में फायरिंग की घटना में सात लोगों के शहीद होने का विवरण सर्वज्ञात है।
समय के साथ पता चला कि इस क्रांति में बलिया के 84 लोग शहीद हुए थे।
बंबई के गवालिया टैंक मैदान में सात और आठ अगस्त, 1942 को महासभा और वर्किंग कमेटी की बैठक के बाद नौ अगस्त की सुबह गांधीजी
सहित बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया जा चुका था। बलिया में यह समाचार रेडियो के
माध्यम से उस दिन शाम तक आया। परिणाम ‘नकल कॉन्फिडेंशियल
डायरी बलिया कोतवाली’ (29 नवंबर 1942) में
दिखता है- “अरज है कि मुख्तसरन इन वाकयात की कैफियत यह है कि
इस जिले में कांग्रेसी सरगरमी अव्वलन 10 अगस्त,1942 ई. से लड़कों के जुलूस से शुरू हुई।” छात्रों के
जुलूस पर प्रतिबंध लगे। इसके बावजूद बेलथरा रोड में जुलूस निकलता रहा। फिर 11
अगस्त को बलिया शहर में छात्रों के जुलूस और स्थानीय प्रतिष्ठानों
की भागीदारी के बाद राम अनंत पाण्डेय को शाम
तक गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन 12 अगस्त को बलिया में छात्रों
के जुलूस पर जमकर लाठियां बरसाई गईं।
बलिया में 1941 के
व्यक्तिगत सत्याग्रह के बंदी रिहा होने के बाद भी 1942 के मई
में इलाहाबाद में हुई वर्किंग कमेटी की बैठक के अनुरूप कार्यकर्ता सक्रिय रहे।
बलिया में ‘आजाद हिन्द स्वयंसेवक दल’ का
गठन हुआ था। चित्तू पाण्डेय, जगन्नाथ सिंह, शिवपूजन सिंह और राजेश्वर तिवारी जैसे लोग इसके तहत गांवों में काम कर रहे
थे। आठ-नौ अगस्त के पहले ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। उस क्रांति के अंत
में जब 19 अगस्त को जिला कारागार से चित्तू पाण्डेय सहित सभी
स्वतंत्रता सेनानियों को रिहा करा लिया गया, उसके बाद चित्तू
पाण्डेय को संगठन का जिला अध्यक्ष होने के नाते उन्हें जिले का कलेक्टर घोषित किया
गया। चित्तू पाण्डेय की अद्भुत सांगठनिक क्षमता और भोजपुरी वाले उनके उत्प्रेरक
भाषण उनकी लोकप्रियता के अंग रहे। चित्तू पाण्डेय के साथ महानन्द मिश्र, जगन्नाथ सिंह और रामअनंत पाण्डेय जैसे नेताओं ने साफ शब्दों में कहा कि
आक्रोश में कुछ भी कर गुजरने को आतुर जिलावासी ‘स्वायत्त
सरकार’ बनने पर ही शांत होंगे। समय के साथ यह पता चला है कि 1942
की क्रांति के दौरान बलिया में 84 लोग शहीद
हुए थे। महत्वपूर्ण यह है कि 1942 की क्रांति की चिनगारी के
चलते बलिया ने इतिहास में अपना अमिट स्थान बना लिया। निश्चित ही यह क्रांति लोगों
को राष्ट्रीय चेतना के लिए प्रेरित करती रहेगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)