-सरकारी कर्मियों के संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर प्रतिबंध पर तत्कालीन सरकार को कठघरे में किया
इंदौर, 25 जुलाई (हि.स.)। सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों में शामिल होने पर रोक लगाने वाले आदेश को केंद्र सरकार ने रद्द कर दिया है, लेकिन इस मामले में गुरुवार को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ ने बेहद अहम टिप्पणियां की है। इंदौर हाईकोर्ट ने इस मामले में तत्कालीन केंद्र सरकार को तो कठघरे में खड़ा किया ही, साथ ही यहां तक कहा कि यह दुर्भाग्य की बात है कि संघ जैसे लोकहित, राष्ट्रहित में काम करने वाले संगठन को प्रतिबंधात्मक संगठन की सूची से हटाने में केंद्र सरकार को पांच दशक लग गए।
दरअसल, मप्र उच्च न्यायालय में यह याचिका केंद्र सरकार के सेवानिवृत्त अधिकारी पुरुषोत्तम गुप्ता ने एडवोकेट मनीष नायर के माध्यम से साल 2023 में दायर की थी, जिसमें कहा गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक द्वारा की जाने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों से प्रभावित होकर याचिकाकर्ता एक सक्रिय सदस्य के रूप में संघ में शामिल होना चाहते हैं। इसकी गतिविधियों का हिस्सा बनना चाहते हैं, लेकिन इसे प्रतिबंधात्मक संगठन में रखा गया है। याचिका में कहा गया है कि संघ गैर राजनीतिक संगठन है और याचिकाकर्ता को अन्य संगठनों की तरह इसकी गतिविधियों में शामिल होने का अधिकार है।
इंदौर उच्च न्यायालय में गुरुवार को सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से डिप्टी सॉलिसिटर जनरल हिमांशु जोशी, डिप्टी एडवोकेट जनरल अनिकेत नायक ने शपथ पत्र पेश किया, जिसमें बताया गया कि केंद्र ने 09 जुलाई 2024 को ही आदेश जारी कर संघ को प्रतिबंधात्मक संगठन से बाहर कर दिया है।
सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने अहम टिप्पणियां करते हुए कहा कि देखा जाए तो केंद्र ने बता दिया है कि संघ को प्रतिबंधात्मक सूची से हटा दिया है और हमें यह याचिका निराकृत कर देना चाहिए, लेकिन इस मामले में कई अहम प्रश्न सामने आए हैं। ऐसे में हम विस्तृत आदेश जारी कर रहे हैं।
अदालत द्वारा जारी आदेश में कहा गया है कि साल 1966, 1970, 1980 में आदेश जारी कर प्रतिबंधात्मक सूची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को डाला गया। यह मामला विशेष रूप से सबसे बड़े स्वैच्छिक गैर सरकारी संगठन में से एक से जुड़ा है। यह विस्तृत टिप्पणी इसलिए जरूरी है क्योंकि यह सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में काम करने वाले किसी भी प्रतिष्ठित स्वैच्छिक संगठन को वर्तमान सरकार की सनक और पसंद के आदेश से सूली पर नहीं चढ़ाया जाए, जैसा कि आरएसएस के साथ हुआ है। बीते पांच दशकों से इसके साथ हो रहा है।
आदेश में कहा गया है कि सबसे बड़ी बात यह कि धर्मनिरपेक्षता का हनन न हो और अधिकारी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो केवल इसी सोच के आधार पर कोई बिना किसी रिपोर्ट, सर्वे के आधार पर जारी हो सकता है क्या? आखिर 1960 और 1990 के दशकों में आरएसएस की गतिविधियों को किस आधार पर सांप्रदायिक माना गया और रिपोर्ट कौन सी थी, जिसके कारण सरकार इस फैसले पर पहुंची। इस सोच पर पहुंचने का क्या आधार था। इस तरह की कोई रिपोर्ट हाईकोर्ट में पेश नहीं हुई, इसके लिए कई बार पूछा गया। हाईकोर्ट ने विविध सुनवाई में इन परिपत्र को लेकर सवाल उठाए, लेकिन जवाब नहीं मिला।
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि सार्वजनिक ज्ञान का विषय है कि आरएसएस सरकारी सिस्टम के बाहर एकमात्र राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित स्वसंचालित स्वैच्छिक संगठन है, जिसमें सक्रिय रूप से भाग लेने वाले देश के सभी जिलों और तालुकों में सबसे अधिक सदस्य है। संघ की छत्रछाया में धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य और कई गैर राजनीतिक गतिविधियां संचालित हो रही है। जिनका राजनीतिक गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है। संघ के कई सहायक संगठन जैसे सरस्वती शिशु मंदिर, राष्ट्रीय सेवा भारती और अन्य हैं जो सामाजिक काम करते हैं।
अर्थ यह है कि संघ की सदस्यता लेने का लक्ष्य स्वयं को राजनीतिक गतिविधियों में शामिल करना नहीं हो सकता है और सांप्रदायिक या राष्ट्रविरोधी या धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों में शामिल होना तो फिर दूर की बात है। जब 50 साल पहले यह आदेश हुए तो इन बारीक अंतर को शायद नजरअंदाज किया गया। हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार 14 और 19 के तहत अधिकार मिले हैं।