गिरीश्वर मिश्र
पूरे देश की जनता ने बड़ा भरोसा जताते हुए अपने 543 प्रतिनिधियों को चुन कर 18 वीं लोकसभा में भेजा है । उनकी आशा है ये सांसद देश की भलाई के लिए नीति और कायदे बनाएं, उसे लागू कराएँ और जन-जीवन को सुरक्षित और खुशहाल बनाएँ। उन्हें यही जनादेश मिला है। संसद की सदस्यता की शपथ लेते समय सांसद गण प्रकट रूप से इन सब बातों को ध्यान में रखने की क़सम भी खाते हैं। कहना न होगा कि देश का संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को रेखांकित करता है। इसलिए उसकी गरिमा बनाए रखना सभी सांसदों का मूल कर्तव्य बन जाता है। इसके लिए कार्य करने का दायित्व धारण करने वाले जन प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा होती है कि वे संसद की बैठकों में नियमित भाग लें और व्यर्थ की बयानबाज़ी की जगह सार्थक बहस करें। चूंकि जनता के समर्थन से ही वे सांसद का दर्जा पाते हैं इसलिए संसद तक पहुंचने की कठिन यात्रा पूरी कर संसद की देहरी लांघ उनको सिर्फ और सिर्फ आम जनता की नुमाइंदगी ही करनी चाहिए । यही उनका फर्ज बनता है। लोकसभा की सदस्यता पांच साल की और राज्यसभा की छह साल की होती है। इस अवधि के दौरान सांसद से अपना लोक-दायित्व इस पूरी अवधि में निभाना अपेक्षित होता है । संसद के बजट, मानसून और शीतकालीन ये तीन मुख्य सत्र होते हैं। सांसदगण को संसद में अपना आचरण भी व्यवस्थित करना होता है। संसदीय बैठक में प्रश्नकाल और शून्यकाल की व्यवस्था भी होती है जो सांसदों को भागीदारी का अवसर देती है। सांसदों की उपस्थिति अकसर समस्या होती है। उसे सुनिश्चित करने के लिए खास मौकों पर जब सदन में किसी विषय पर मतगणना की जरूरत पड़ती है तो सांसदों की घेरेबंदी भी करनी पड़ती है। उनको पकड़ में बनाए रखने के लिए पार्टियों द्वारा ह्विप जारी किया जाता है।
इतिहास पर गौर करें तो पता चलता है कि पहली लोकसभा की बैठक वर्ष में 135 दिन आयोजित हुई थी। सात दशक बाद पिछली यानी सत्रहवीं लोकसभा तक आते-आते स्थिति कितनी नाज़ुक हो गई इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि कुल 55 दिन की बैठक का ही औसत रहा। कोविड के कारण सन 2020 में कुल 33 दिन ही बैठक हुई । यह दुखद है कि सन 1952 के बाद सबसे कम संसदीय काम सत्रहवीं लोकसभा में हुआ। (लगभग) बिना विचार किए बिल पास करने की प्रथा भी चल निकली । 35 प्रतिशत बिल एक घंटे से कम की चर्चा के बाद पास हुए। अब बिल स्टैंडिंग कमेटी को भी नहीं जाते। पिछली लोकसभा के काल में कुल 16 प्रतिशत बिल ही उसके पास विचार हेतु भेजे गए। सांसदगणों ने 729 निजी बिल प्रस्तुत किए जिनमें से पर केवल 2 पर ही विचार हुआ । और तो और डेढ़ सौ सांसद निलम्बित भी हुए थे । 17 वीं लोकसभा में वर्ष 2014-19 के बीच कुल 274 बैठकें की गईं । इनमें विभिन्न प्रदेशों के सांसदों ने प्रश्न भी पूछे जिनका विवरण कुछ इस तरह है : महाराष्ट्र 370, आंध्र 275, राजस्थान 273, और पूर्वोत्तर 152 प्रश्न। नए सांसदों ने अधिक प्रश्न पूछे। औसतन सासंदों ने 45 बहसों में भाग लिया । केरल और राजस्थान के सांसद अधिक सक्रिय थे। उसके बाद स्थान था क्रमश: उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड के सांसदों का । सांसदों की उपस्थिति का प्रतिशत उनकी शैक्षिक पृष्ठभूमि से जुड़ा था (हायर सेकेंडरी 34 प्रतिशत,ग्रेजुएट 47 प्रतिशत और स्नातकोत्तर 59 प्रतिशत सांसद उपस्थित रहे) । 56 सांसद 60 प्रतिशत से कम उपस्थित रहे, 16 की उपस्थिति 35 प्रतिशत से कम थी । केवल दो सांसद ही शत प्रतिशत उपस्थित रहे। 120 सांसदों की उपस्थिति 90 प्रतिशत से अधिक थी। दो दशकों से सांसद और अब नई लोकसभा में विपक्ष के प्रमुख (लोप) नेता राहुल गांधी की उपस्थिति पिछली लोकसभा में 51 प्रतिशत थी ।
विपक्ष सरकार को घेरने और आरोपित करने के उद्देश्य से संसद के कार्य में अकसर व्यवधान डालते हैं। उनका मकसद यही होता है कि कार्य न चल सके हो और सरकार की विफलता दर्ज हो । संसद से बाहर मीडिया के माध्यम से जनता को अकसर यह संदेश दिया जाता है कि विपक्ष को बोलने का मौका नहीं दिया जाता और लोकतंत्र खतरे में है, सरकार तानाशाही रवैया अपना रही है और किसी की कोई सुनवाई नहीं है। अकसर संसद एक नाट्य मंच का रूप ले लेता है जहां कई नेता अभिनय की ओर उन्मुख हो जाते हैं। मीडिया की सक्रिय और तीव्र उपस्थिति के बीच वेश-भूषा, हाव-भाव और बोल-चाल सभी कुछ कैमरे की हद में होता है और टीवी आदि द्वारा यथाशीघ्र पूरे देश में प्रसारित हो जाता है। इस अवसर का लाभ उठाना लोकप्रियता अर्जित करने के लिए जरूरी होता है। अपनी सशक्त छवि-निर्माण के प्रति संवेदनशील नेतागण इसका कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते।
हमें यह याद करना चाहिए कि भारत की परम्परा में प्रसिद्ध है कि वह सभा, सभा नहीं, जिसमें कोई वृद्ध न हों। वे वृद्ध, वृद्ध नहीं जो धर्म की बात न बोलते हों । वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं जो कपटपूर्ण हो। आज संसदीय सौंध में वृद्ध महानुभावों की संख्या कम है और सत्य की तो बात ही भूल जाएं । आज नई भारतीय संसद की औसत आयु 56 वर्ष है जो सत्रहवीं की तुलना में तीन वर्ष कम है। इसमें 40 वर्ष की आयु से कम 11 प्रतिशत सांसद हैं। 41 से 55 वर्ष की आयु के बीच 38 प्रतिशत सांसद हैं। 80 प्रतिशत सांसद स्नातक या उससे अधिक की शिक्षा प्राप्त हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि से नाता घना होता गया है और उनकी धौंस इतनी कि जेल में बन्द हो कर भी वे चुनाव लड़ कर विजयी हुए हैं। 46 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि 25 सांसद सौ करोड़ से अधिक की घोषित सम्पत्ति के स्वामी हैं यानी बिलेनियर हैं ।
गौर करने की बात है कि संसद को चलाने का खर्च लगभग 2.5 लाख रुपये प्रति मिनट का आता है, महंगाई का अनुपात जोड़ें तो यह खर्च इसके ऊपर ही जाएगा। इसलिए इस समय का ठीक उपयोग होना चाहिए। पिछले बजट सत्र में लोकसभा 133.6 घंटे के लक्ष्य की तुलना में महज 32.3 घंटे ही चली थी। लोकसभा के सत्र अधिकाधिक अनुत्पादी हो रहे हैं। इस कारण समय और धन दोनों की बर्बादी हो रही है। विपक्षी दल ने कार्रवाई न चलने देने को प्रथम और अंतिम कर्तव्य मान रखा है। ऐसे में धर्म की मर्यादा निभा पाना कठिन चुनौती है । बहुतेरे माननीय सत्य की जगह किसी भी तरह के छल-कपट से बाज नहीं आते। उनका आचरण संविधान की व्यवस्थाओं के अनुशासन के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता । सार्थक और उत्पादक संवाद के लिए हर सांसद को संविधान का ज्ञान और संसदीय परम्पराओं की जानकारी भी होनी चाहिए। दुर्भाग्य से बहुत कम सांसद ही इस ओर ध्यान देते हैं। मुखर प्रवक्ता के रूप में विपक्ष के कई सांसद अकसर बेलगाम आरोप प्रत्यारोप दर्ज कराने में जुट जाते हैं। आधी-अधूरी सूचनाओं या गलत जानकारी के साथ विपक्ष के नेता गण सरकारी पक्ष को आरोपित करने में जुट जाता है। अब कुछ समय से धरना-प्रदर्शन के साथ सड़क पर होने वाले राजनीतिक दम-खम दिखाने वाले नजारे संसद के दोनों सदनों में भी दिखने लगे हैं। भौतिक रूप से छीना-झपटी और हाथापाई की नौबत भी दिखती रही है और विचाराधीन विषय से दूर एक दूसरे को हीन साबित करना ही उद्देश्य बन जाता है। कई सांसद बिना आवश्यक तैयारी के आते हैं तो कई साजो-सामान के साथ आते हैं और बड़े नाटकीय अन्दाज में अपना वक्तव्य रखते हैं।
लोकसभा का नया सत्र…। इस बार संख्या-बल की दृष्टि से विपक्ष पहले की तुलना में अधिक ताकतवर है। यह संसदीय बहसों के स्तर को वैचारिक दृष्टि से समृद्ध करने वाला हो सकता है बशर्ते खुले मन से बातचीत हो। आशा है नए पुराने सभी सांसद अपने उत्तरदायित्व को समझेंगे और काम-काज के प्रति सकारात्मक और गंभीर रुख़ अपनाएंगे। संवाद में भाषा की अहं भूमिका होती है। उस पर नियंत्रण होना बड़ा आवश्यक है अन्यथा व्यर्थ का बवाल खड़ा हो जाता है जिसे सुलझाने में समय ज़ाया होता है। विवाद के प्रश्न तो होंगे ही पर कटुता की जगह विमर्श और विचार की गंभीरता से ही लोकतंत्र की शक्ति बढ़ेगी । दलगत पसंद और नापसंद स्वाभाविक है किंतु उससे ऊपर उठ कर रचनात्मक भूमिका निभाने का साहस जरूरी है। संसद का संचालन किसी एक की नहीं पक्ष और विपक्ष दोनों की साझे की जिम्मेदारी होती है। दोनों के ध्यान के केंद्र में अंतत: सुशासन और लोक कल्याण ही होना चाहिए। प्रजा के सुख में ही राजा का भी सुख निहित होता है।