नई दिल्ली, 20 नवंबर (हि.स.)। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के “कला दर्शन” विभाग के स्थापना दिवस पर केंद्र का ऑडिटोरियम “समवेत” संगीतमयी शाम से झंकृत हो उठा। इस अवसर पर ब्रजनगर, भरतपुर (राजस्थान) के संजीव पलिवार और उनके साथियों ने दर्शकों के सामने तालबंदी की झूमा देने वाली प्रस्तुति दी, तो जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर से आए अब्दुल हमीद भट्ट और उनके समूह ने रवाब वादन से उपस्थित श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे प्रख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. सुब्रत गंगोपाध्याय, जो ह्युस्टन, अमेरिका से आए थे। वह “इंडियन हिस्ट्री अवेयरनेस रिसर्च” (आईएचएआर) के संस्थापक भी हैं। कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी और निदेशक (प्रशासन) डॉ. प्रियंका मिश्रा भी इस अवसर पर उपस्थित थीं।
डॉ. सुब्रत गंगोपाध्याय ने अपने वक्तव्य में कहा कि कल्चर का अर्थ होता है कुलाचार, जिसका संरक्षण इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र कर रहा है और इस कुलाचार के संरक्षण के कई रूप हैं, जिसमें फाइन आर्ट से लेकर संगीत तक कई विधाएं शामिल हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जब हम तार वाद्य (स्ट्रिंग इंस्ट्रुमेंट), जैसेकि सरस्वती वीणा, रुद्र वीणा आदि के इतिहास की बात करते हैं, तो वह हमारे शास्त्रों से जुड़ा है। कला के माध्यम से, संगीत के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति होती, स्वयं की प्राप्ति होती है। इसलिए कला का स्थान श्रेष्ठ है। विज्ञान बाहर का ज्ञान है और कला अंदर का ज्ञान है।
डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि “कला दर्शन” इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का एक बहुत महत्त्वपूर्ण विभाग है। उन्होंने कहा कि जब तक शास्त्र का प्रयोग नहीं होता है, उसमें निहित चीजें प्रकट नहीं होती, तब तक शास्त्र का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। शास्त्र के प्रयोग की व्यवस्था भी होनी चाहिए। कला दर्शन विभाग यही महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। उन्होंने यह भी कहा कि हमारे यहां अनावश्यक रूप से शास्त्र और लोक में भेद का प्रश्न खड़ा कर दिया गया। अंग्रेजी का “फोक” शब्द हिंदी के “लोक” शब्द का अर्थ प्रकट नहीं करता। जो लोक में होता है, वह धीरे-धीरे और अधिक विकसित होकर शास्त्र के रूप में जन्म लेता है और जो शास्त्र है, उसका जब बहुत अधिक प्रयोग होता है, तो धीरे-धीरे वह लोक में आरुढ़ हो जाता है। लोक और शास्त्र अलग नहीं, है बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्होंने इस संदर्भ में रवाब और सरोद का उदाहरण दिया कि रवाब एक लोक वाद्य है और उसका परिवर्धित रूप सरोद शास्त्रीय संगीत में बजाया जाता है।
ब्रज की 400 वर्ष पुरानी विधा है तालबंदी, जिसमें शास्त्रीय संगीत की विभिन्न शैलिया शामिल हैं। हालांकि इसका गायन शास्त्रीय संगीत के उलट खड़े होकर किया जाता है। ग्रामीण अंचलों में इस गायन विधा को जीवित रखने में तालबंदी सम्राट और प्रसिद्ध गायक स्वर्गीय डॉ. बाबूलाल पलवार ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके पौत्र संजीव पलिवार और उनके साथियों ने कला दर्शन के स्थापना दिवस पर तालबंदी गायकी की शानदार प्रस्तुति दी। इस गायन में ब्रज के माधुर्य और राजस्थान के शौर्य का अद्भुत मेल था। इस मनमोहक प्रस्तुति से पहले संजीव पलियार ने बताया कि उस्ताद बड़े गुलाम अली ने संगीत के तीन प्रकार बताए थे- शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत। समय के साथ इन तीनों प्रकार के संगीत में फर्क पैदा हो गया। तब एक विधा ने जन्म लिया, जिसका नाम था तालबंदी गायकी। तालबंदी गायकी ने तीनों विधाओं के फर्क को मिटा दिया।
इसके बाद श्रीनगर से आए अब्दुल हमीद भट्ट और उनके साथियों ने अपने संगीत के माध्यम से श्रोताओं के सामने कश्मीर के लोक जीवन की खूबसूरती को उपस्थित कर दिया। उनकी रवाब प्रस्तुति में झेलम-चिनाब की रवानी और कश्मीर के वादियों की सुहानी हवा को महसूस किया जा सकता था। अब्दुल हामिद भट्ट ने बताया कि यह फन उन्होंने पिता से उस समय सीखा था, जब 1990 में कश्मीर के हालात बहुत खराब थे। इसके बावजूद, उन्होंने रवाब का अभ्यास नहीं छोड़ा। दिन में संभव नहीं हो पाता था, तो वे रवाब का रियाज रात में करते थे। उन्होंने रवाब पर कई धुनें बजाईं, जिसमें कश्मीर का मशहूर गीत “बुमरो बुमरो” भी शामिल था।
कार्यक्रम के अंत में डॉ. सच्चिदानंद जोशी और डॉ. सुब्रत गंगोपाध्याय ने सभी कलाकारों को सम्मानित किया। कला दर्शन विभाग की प्रमुख डॉ. ऋचा कम्बोज ने सभी अतिथियों, आगंतुकों और कलाकारों का धन्यवाद ज्ञापन किया।