शिमला, 25 जून (हि.स.)। आपातकाल भारतीय राजनीति के इतिहास का काला अध्याय है। इंदिरा गांधी तथा संजय गांधी की अत्यधिक सत्तालिप्सा ने लोकतंत्र को बंधक बना दिया। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी एवं धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों पर सवाल उठना लाजिमी है। इन शब्दों पर विमर्श की आवश्यकता है। पश्चिमी देशों में राज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है। क्योंकि उन राष्ट्रों में चर्च या राष्ट्रपति ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। ईसाई समाज में अनेक गुटों में संघर्ष होता है। फलतः वहां धर्मनिरपेक्ष शब्दों की कल्पना की गयी।
उक्त बातें दार्शनिक एवं राजनीति विज्ञानी प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज ने विश्व संवाद केन्द्र, शिमला तथा पंडित दीनदयाल उपाध्याय पीठ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के संयुक्त तत्वावधान में ‘‘आपातकाल-भारतीय राजनीति का काला अध्याय’’ विषयक ऑनलाइन व्याख्यान के अवसर पर कही।
उन्होंने कहा कि आपातकाल के लक्षण पूर्व में ही दिखायी देने लगे थे। जब न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला दिया तथा मीडिया ने पूरे समाचार को बिना काट-छांट के प्रकाशित कर दिया। इस देश पर कभी शकों, हुणों, कुषाणों, मुगलों तथा अंग्रेजों का शासन था। परंतु आपातकाल में अपने देश की चुनी सरकार ने अपनी ही जनता पर तरह-तरह के अत्याचार किए। यह कांग्रेस के लिए शर्म की बात होनी चाहिए, लेकिन कांग्रेस ने आजतक देश की जनता से क्षमा नहीं मांगी। यह पार्टी अपने आपको लोकतांत्रिक मानती है। जिस परिवार में अध्यक्ष पद 50 वर्षों तक रहा हो। वह परिवारवादी पार्टी है या लोकतांत्रिक पार्टी। भारतीय जनता पार्टी में अध्यक्ष का चुनाव होता है। एक छोटा से छोटा कार्यकर्ता नेता बन सकता है पर कांग्रेस में नेता ऊपर से थोपे जाते हैं।
आपातकाल भारतीय राजनीति के इतिहास का काला अध्याय था। कुछ समाचार पत्रों ने काला बार्डर देकर संपादकीय पेज खाली छोड़ दिया। तत्कालीन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार पत्रकारों के समक्ष यहां तक कहा, ‘तानाशाह की इच्छा केवल इतनी ही थी कि आप लोग केवल झुककर चलें, लेकिन कितने दुख की बात है कि कुछ पत्रकारों ने तो उसके सामने रेंगना शुरू कर दिया। आपातकाल के समय स्टेट्स्मैन, इंडियन एक्सप्रेस, आर्गनाइजर , मेनस्ट्रीम, ‘पांचजन्य, क्वेस्ट, सेमिनार, हिम्मत, जन्मभूमि, राष्ट्रवार्ता, केसरी, आनंदबाजार पत्रिका, युगान्तर, कलकत्ता मासिक, गरीकेट रास्ता, बांग्ला पंचायत, कलिकाता, लोकवाणी, दिव्यवाणी, अर्थविकास, विक्रम, चुनाववाणी आदि ने सत्ता के विरोध में शंखनाद किया।
हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने कहा कि 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद से इंदिरा गांधी और बाकी धड़ों में अंदरूनी संघर्ष चल रहा था। सन् 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन विजय का श्रेय इंदिरा गांधी को दिया गया, जिससे 1971 के लोकसभा चुनावों में भारी सफलता मिली। चारों ओर भ्रष्टाचार, जमाखोरी, अपराध, लूटपाट, रिश्वतखोरी, महंगाई और सिफारिश का बोलबाला हो गया था। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। 1973 में चिमन भाई पटेल के विरुद्ध उठी आंधी बिहार में पहुंच गयी। इंदिरा का संगठन और सत्ता पर एकाधिकार स्थापित हो गया। इंदिरा गांधी ने आपातकाल से पूर्व ही तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता को अनदेखा कर गुजरात के न्यायमूर्ति ए.एन.रे को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह कदम लोकतांत्रिक संविधान के विरुद्ध एक उपहास था।
आपातकाल में न्यायपालिका की शक्तियां जबर्दस्त रूप से घटा दी गईं। सरकार और दल की असीमित शक्ति प्रधानमंत्री के हाथों में केंद्रित हो गई, लेकिन नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों का विरोध किया। दुर्भाग्य से कुछ क्षेत्रों में अति उत्साह के चलते जबरन नसबंदी और स्लम उन्मूलन जैसे कुछ कार्यक्रमों में क्रियान्वयन अनिवार्यता बन गई। संजय गांधी के परिवार नियोजन को उनके समर्थन के चलते सरकार ने इसे और उत्साह से लागू करने का फैसला किया।
उन्हाेंने कहा कि आपातकाल के खिलाफ सत्याग्रह में हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रहकर आंदोलन चलाना शुरू किया। आपातकाल के खिलाफ पोस्टर सड़कों पर चिपकाना, जनता को सूचनाएं देना और जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओं, नेताओं के बीच संवाद सूत्र का काम संघ कार्यकर्ताओं ने संभाला। जब लगभग सभी प्रमुख नेता जेलों में बंद थे, तब सारे दलों का विलय करा कर जनता पार्टी का गठन करवाने की कोशिशें संघ की ही मदद से चल सकी थीं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय कि प्रति-कुलपति प्रो. ज्योति प्रकाश ने की। उन्होंने कहा कि देश में लोकतंत्र को मजबूत किया जाना चाहिए। मैं उस समय विश्वविद्यालय का छात्र था। गुप्त खबरें मिलती थीं। जनता को झूठे मुकदमें में फंसाया जा रहा है। उन पर मीसा तथा डीआईआर लगाया जा रहा है, ताकि लोकतंत्र प्रहरी टूट जाए। आपातकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रमुख भूमिका रही। संघ के कार्यकर्ताओं ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।