अपनों ने निकाला तो भाजपा ने संभाला : कृष्ण पाल सिंह राजपूत

– अब हाथी छोड़ कमल खिलाएंगे पूर्व बबीना विधायक

झांसी, 24 दिसम्बर (हि.स.)। विधानसभा चुनाव 2022 का शंखनाद होने के बाद दलों में दल बदली का गणित जोरों पर चल रहा है। हाल ही में बसपा से निष्कासित किए गए 2012 के निर्वाचित हुए एकमात्र कद्दावर बसपा विधायक केपी राजपूत ने शुक्रवार को लखनऊ में अपने साथियों समेत भाजपा का दामन थाम लिया। इसके बाद बबीना विधानसभा सीट के समीकरण तेजी से बदलते नजर आ रहे हैं। हालांकि केपी राजपूत के सपा में जाने की भी अटकलें जोरों पर थी लेकिन इस बीच भाजपा ने उन्हें संभाल लिया। जिस पार्टी में अपने ही अपनों को काटने में लगे हैं भला उन्हें किसी दुश्मन की क्या जरूरत।

बबीना विधानसभा का जिक्र होते ही जातीय समीकरण की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है। जातीय समीकरण के नाम पर बबीना विधानसभा में लोधी और यादव वोट का खासा दबदबा है। ऐसा माना जाता है कि यदि इन 02 जातियों में किसी भी पार्टी ने सेंधमारी कर ली तो उसकी जीत सुनिश्चित है। हाल ही में बसपा ने अपने कद्दावर नेता कहे जाने वाले कृष्ण पाल सिंह राजपूत को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था। यह वही कृष्णपाल सिंह राजपूत हैं जिन्होंने 2012 विधानसभा चुनाव में सपा की सरकार बनने के बावजूद भी अपने दम पर बबीना विधानसभा सीट से बसपा का परचम लहराया और सपा के मिनी मुख्यमंत्री कहे जाने वाले कद्दावर नेता चंद्रपाल सिंह यादव को पराजय का मुंह दिखाया था। तब से उनके दमखम के चर्चे जोरों पर रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि राजपूत वोट उनके साथ है।

बबीना से लेकर चिरगांव तक जितने भी लोधी वोट होते हैं कृष्ण पाल सिंह राजपूत की पकड़ उन पर सुनिश्चित मानी जाती है। इन्हीं लोधी वोटों के लुभावने में आकर बसपा छोड़ने के तुरंत बाद सपा ने इन्हें अपने दल में शामिल करने के लिए हर तरह के प्रयास किए लेकिन इन सब को धता बताकर झांसी से लखनऊ तक की राजनीतिक यात्रा तय करते हुए पहुंचे भाजपा के प्रदेश मीडिया में दखल रखने वाले हिमांशु दुबे ने केपी राजपूत को भाजपा में शामिल करा दिया। इस कार्य में उनकी भूमिका अहम बताई जा रही है। एक ओर बसपा के तमाम कद्दावर नेताओं को सपा ने अपने गुट में शामिल कर लिया है, तो दूसरी ओर बबीना विधानसभा क्षेत्र में अपनी धाक जमाने वाले 2012 के इकलौते बसपा विधायक केपी राजपूत को भाजपा ने अपने खेमे में शामिल कर लिया है।

सूत्रों की माने तो, भाजपा की यह बहुत बड़ी कामयाबी बताई जा रही है तो दूसरी ओर बसपा की नाकामी। साथ ही इस नाकामी का कलंक बसपा के उसी नेता के सिर मढ़ा जा रहा है जिसने चंद रोज पूर्व जालौन के जिलाध्यक्ष के साथ भी ऐसा ही किया था। बाद में उसे भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था। इन नेताजी पर कई बार आरोपों के कलंक लग चुके हैं। देखना यह है कि बसपा अपनी इस कमी को किस तरह पूरा करने का प्रयास करती है।

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