श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व पर विशेष
कुसुम चोपड़ा
सिखों के पहले पातशाह श्री गुरु नानक देव जी महाराज, जिनका नाम लेने मात्र से मानो आत्मिक शांति का अहसास होने लगता है। श्री गुरु नानक देव जी सिखों के ही नहीं, अपितु समस्त मानव जाति के लिए आदर्श हैं। उनकी शिक्षाएं, उनके विचार और उनके कर्म आज हर मनुष्य को प्रकाश के मार्ग पर ले जाते हैं। गुरु साहब ने अपना पूरा जीवन लोक भलाई के लिए समर्पित कर दिया।
ऐसा था गुरु साहिब का बचपन, शिक्षा और वैवाहिक जीवन
श्री गुरु नानक देव जी का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव (जिसका नाम आगे चलकर ननकाना पड़ गया) में कार्तिक पूर्णिमा को एक खत्री परिवार में हुआ। कुछ विद्वान इनकी जन्मतिथि 15 अप्रैल, 1469 मानते हैं, परंतु इनका जन्म दिवस हर साल कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन ही मनाया जाता है, जो अक्टूबर-नवंबर में दिवाली के करीब 15 दिनों बाद पड़ता है। उनके पिता का नाम मेहता कालू और माता का नाम तृप्ता देवी था, जबकि बहन बेबे नानकी थीं।
गुरु साहिब बचपन से ही प्रखर बुद्धि के स्वामी थे। लड़कपन से वे सांसारिक मोहमाया के प्रति काफी उदासीन रहा करते थे। पढ़ने-लिखने में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी, लेकिन उनका सारा समय आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत होता था। उनके बाल्यकाल में कई ऐसी चमत्कारी घटनाएं हुई, जिसके बाद लोग उन्हे दिव्य शख्सियत मानने लगे।
सोलह वर्ष की आयु में बाबा जी का विवाह पंजाब के गुरदासपुर जिले के तहत पड़ने वाले लाखौकी गांव की रहने वाली कन्या सुलक्खनी से हो गया। उनके दो पुत्र श्रीचंद और लखमीदास हुए। बेटों के जन्म के बाद बाबा नानक अपने परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी ससुर पर छोड़कर अपने चार साथियों मरदाना, लहना, बाला और रामदास के साथ तीर्थयात्रा पर निकल पडे़।
बाबा नानक ने की चार उदासियां
गुरु साहिब चारों दिशाओं में घूम-घूम कर लोगों को उपदेश देने लगे। 1521 ईस्वी तक उन्होंने चार यात्रा चक्र पूरे किए, जिनमें भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य स्थान शामिल थे। इन यात्राओं को पंजाबी में उदासियाँ के नाम से जाना जाता है। गुरु नानक देव जी मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं रखते थे। नानक जी के अनुसार ईश्वर कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर ही है। उन्होंने हमेशा ही रुढ़ियों और कुरीतियों का विरोध किया। उनके विचारों से नाराज तत्कालीन शासक इब्राहिम लोदी ने उन्हें कैद तक कर लिया था। पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी हार गया और राज्य बाबर के हाथों में आ गया, तो उन्हें कैद से मुक्ति मिली।
अंधविश्वास के मकड़जाल से दिलाई मुक्ति
श्री गुरुनानक देव जी का जीवन सदैव समाज के उत्थान में बीता। उस समय का समाज अंधविश्वासों और कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसा हुआ था। ऐसे जटिल दौर में गुरुनानक देवजी ने प्रकट होकर समाज में आध्यात्मिक चेतना जगाने का जो काम किया, उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। श्री गुरुनानक देव जी ने अपने उपदेशों में निरंकार पर जोर दिया। उन्होंने कहा धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान ऐसी नैया है, जो अंधविश्वास के भवसागर से पार उतारती है। ये ज्ञान हमें निरंकार के देश की तरफ लेकर जाता है, जिसके समक्ष सिख आज भी नतमस्तक होते हैं। सिखमत का आगाज ही “एक” से होता है। सिखों के धर्म ग्रंथ में “एक” की ही व्याख्या है। एक को निरंकार, पारब्रह्म आदि नामों से जाना जाता है। निरंकार का स्वरूप श्रीगुरुग्रंथ साहिब की शुरुआत में बताया है जिसे आम भाषा में गुरु साहिब के उपदेशों का ‘मूल मन्त्र’ भी कहते हैं। यह ग्रंथ पंजाबी भाषा और गुरुमुखी लिपि में है। इसमें मुख्यत: कबीर, रैदास और मलूकदास जैसे भक्त कवियों की वाणियाँ सम्मिलित हैं।
कविताएं और रचनाएं
बाबा नानक बहुत ही पहुंचे हुए सूफी कवि थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से प्यार दर्शाते हुए जो अभिव्यक्ति की, वो बेहद अनूठी और निराली है। उनकी भाषा “बहते पानी” की तरह थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी के शब्द समा गए थे। श्री गुरुग्रन्थ साहिब में सम्मिलित 974 शब्द (19 रागों में), गुरबाणी में शामिल हैं।
सिख धर्म की स्थापना
15वीं शताब्दी में सिख धर्म की स्थापना पंजाब प्रांत में गुरुनानक देवजी ने ही की थी। सिख धर्म भारतीय संत परंपरा से निकला एक पंथ है, जिसमें सनातन धर्म का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं महत्वपूर्ण स्थान है। गुरुनानक देव जी ने उस समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों और पाखण्डों को दूर करते हुए प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की मजबूत नींव पर सिख धर्म की स्थापना की। उस समय पंजाब में हिंदू और इस्लाम धर्म का बोलबाला था। गुरुनानक देव जी ने लोगों को सिख धर्म के बारे में जानकारी देनी शुरू की, जो इस्लाम और हिंदू धर्म से काफी अलग था। एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव जी ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को इस धर्म में समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था- परमात्मा एक है, उसी ने हम सबको बनाया है। हिन्दू-मुसलमान सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं।
लोक भलाई के नाम कर दी जीवन की आखिरी सांस
जीवन के अंतिम दिनों में गुरु साहिब के लोकहित में किए गए कामों की प्रसिद्धि हवा में घुलती फूलों की महक की तरह हर तरफ फैल चुकी थी। अपने परिवार के साथ मिलकर वे मानवता की सेवा में पूरा समय व्यतीत करने लगे। उन्होंने करतारपुर नाम से एक नगर बसाया, जो अब पाकिस्तान के नारोवाल जिले में स्थित है।
अपनी चार उदासियों के बाद गुरुनानक देव जी 1522 में करतारपुर साहिब में बस गए। उनके माता-पिता का देहांत भी इसी जगह पर हुआ था। करतारपुर साहिब में ही गुरुनानक साहिब ने सिख धर्म की स्थापना की थी। उन्होंने रावी नदी के किनारे सिखों के लिए एक नगर बसाया और यहां खेती कर ‘नाम जपो, किरत करो और वंड छको का उपदेश दिया। करतारपुर साहिब में उन्होंने अपने जीवन के आखिरी 17 साल बिताए। यहीं पर 22 सितंबर 1539 ईस्वी को उन्होंने समाधि ले ली। ज्योति-ज्योत समाने से पहले गुरु साहिब ने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव जी के नाम से जाने गए।
गुरु नानकदेव जी के बाद 9 गुरु और आए, जिन्होंने सिख धर्म को आगे बढ़ाया, लेकिन उन सबका भी एक ही उद्देश्य यानि भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा करना ही था। पांचवें गुरु ‘श्री गुरु अर्जन देव जी’ के समय तक सिख धर्म पूरी तरह से स्थापित हो चुका था। उन्होंने ही श्री गुरुग्रंथ साहिब का संकलन भी किया।