पड़ोसी देशः नई पहल जरूरी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के विदेश मंत्री डाॅ. जयशंकर आजकल अमेरिका के नेताओं, अफसरों और विदेश नीति विशेषज्ञों से गहन संवाद कर रहे हैं। यह बहुत सामयिक है, क्योंकि इस कोरोना-काल में सबका ध्यान महामारी पर लगा हुआ है और विदेश नीति हाशिए में सरक गई है। लेकिन चीन-जैसे राष्ट्र इसी मौके को अवसर की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत के पड़ोसी राष्ट्रों और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए हैं।
पाकिस्तान के साथ चीन की इस्पाती-दोस्ती या लौह-मैत्री तो पहले से ही है। पाकिस्तान अब अफगान-संकट का लाभ उठाकर अमेरिका से भी सांठ-गांठ करना चाहता है, इसलिए उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने हाल ही में एक ताजा बयान भी दिया है कि पाकिस्तान किसी खेमे में शामिल नहीं होना चाहता है याने वह चीन का चप्पू नहीं है लेकिन उसकी पुरजोर कोशिश है कि अमेरिका की वापसी के बाद वह अफगानिस्तान पर अपना पूर्ण वर्चस्व कायम कर ले। यों भी अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान की असीम दखलंदाजी है। कल ही हेलमंद घाटी में तालिबान के साथ घायल एक पाकिस्तानी फौजी अफसर की मौत हुई है।
अफगानिस्तान आजाद रहे, भारत यही चाहता है। इसीलिए हमारे विदेश मंत्री की कोशिश है कि अमेरिका वहां से अपनी वापसी के लिए जल्दबाजी नहीं करे। पाकिस्तान के साथ तो चीन एकजुट है ही लेकिन अब वह श्रीलंका पर भी डोरे डालने में काफी सफल हो रहा है। अब श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में ‘कोलंबो पोर्ट सिटी’ बन रही है, जिस पर चीन 1.4 बिलियन डाॅलर खर्च करेगा। इसकी भव्यता पर 15 बिलियन डाॅलर का विनियोग होगा। इसे लेकर श्रीलंकाई संसद ने एक कानून बना दिया है। कानून पर चली बहस के समय कई विपक्षी सांसदों ने कहा कि श्रीलंका की राजधानी में यह ‘चीनी अड्डा’ बनने जा रहा है। इस पूरे क्षेत्र पर अब श्रीलंका की नहीं, चीन की संप्रभुता होगी। श्रीलंका सरकार ने एक चीनी कंपनी को कोलंबो में ऊँची-ऊँची सड़कें बनाने का भी मोटा ठेका दिया है।
चीनियों ने अभी से अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। उनके निर्माण-कार्य जहां-जहां चल रहे हैं, वहां-वहां उन्होंने जो नामपट लगाए हैं, वे सब सिंहल, चीनी और अंग्रेजी में हैं। उनमें से श्रीलंका की दूसरी राजभाषा तमिल को गायब कर दिया गया है, क्योंकि वह भारतीय भाषा भी है। इसे लेकर आजकल श्रीलंका में काफी विवाद चल रहा है। यों तो श्रीलंका के नेता भारत-श्रीलंका मैत्री को बेजोड़ बताते थकते नहीं हैं लेकिन भारत के अड़ोस-पड़ोस में अब चीन का वर्चस्व इतना बढ़ रहा है कि भारत के विदेश मंत्रालय को अब पहले से अधिक सजग और सक्रिय होना होगा। जयशंकर चाहें तो दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के लिए बाइडन-प्रशासन को विशेष सहायता की नई व्यावहारिक पहल भी सुझा सकते हैं।

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