नेपाल में आधी रात की राजनीतिक लूट

सियाराम पांडेय ‘शांत’नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने यह कहते हुए कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं है, शुक्रवार की रात संसद भंग कर दी और 12 तथा 19 नवंबर को मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा की। इसी के साथ नेपाल की राजनीति सरगर्म हो गई है। नेपाल के विपक्षी दल इसे आधी रात की लूट करार दे रहे हैं और इसमें राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री दोनों को शामिल बात रहे हैं।

आरोप तो यह भी लगाया जा रहा है कि ओली की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने दूसरी बार नेपाली संसद भंग की है। पिछले साल 20 दिसंबर को भी उन्होंने ऐसा ही किया था लेकिन उच्चतम न्यायालय ने फरवरी 2021 में सरकार बहाल कर दी। जिस तरह नेपाल के राजनीतिक दल राजनीतिक और कानूनी कार्यवाही की बात कर रहे हैं, उससे इस प्रकरण का एकबार फिर अदालत में जाना लगभग तय माना जा रहा है। बताया तो यह भी जा रहा है कि राष्ट्रपति की इस घोषणा से पहले प्रधानमंत्री ओली ने आधी रात को मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद 275 सदस्यीय सदन को भंग करने की सिफारिश की थी। एकदिन पहले भी ओली सदन में शक्ति परीक्षण के प्रति अपनी अनिच्छा जाहिर कर चुके थे।
सरकार में बने रहने के भी अपने कायदे कानून होते हैं। हठधर्मिता के आधार पर कोई लंबे समय तक प्रधानमंत्री नहीं बना रह सकता। ओली को यह बात समझनी चाहिए। भले ही यह राजनीतिक संकट नेपाल का हो लेकिन यह भारत की चिंता का भी विषय है कि वहां किस दल की सरकार बनती है और कौन प्रधानमंत्री बनाता है? 2015 के बाद नेपाल जिस तरह अपने एक हाथ में चीन और दूसरे में भारत को रखता है, उसे देखते हुए भी भारत को बेहद सतर्क ढंग से इस संवेदनशील मामले पर नजर रखना चाहिए। यही उसके व्यापक हित का तकाजा भी है।
गौरतलब है कि ओली और देउबा दोनों ने ही सरकार बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन का दावा किया था। ओली के विफल होने पर देउबा को मौका दिया जाना चाहिए था लेकिन इससे पहले ही इस तरह के बड़े और कड़े निर्णय लेने से राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी की विश्वसनीयता पर तो सवाल उठते ही हैं। नेपाल के माधव धड़े ने जिस तरह ओली और देउबा पर अपने सांसदों के हस्ताक्षर का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया है, उसके बाद शक्ति परीक्षण ही एक मार्ग बचता था लेकिन फितरत की जंग जीतने में माहिर ओली को पता था कि शक्ति परीक्षण में एकबार फिर उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। वैसे जांच तो इस बात की भी होनी चाहिए कि ओली और देउबा दोनों की सूची में कुछ सांसदों के नाम समान रूप से कैसे शामिल हो गए। जब माधव धड़े के सांसदों ने हस्ताक्षर किए ही नहीं तो उनके दस्तखत बनाए किसने?
प्रधानमंत्री ओली विपक्षी दलों के नेताओं से कुछ पहले राष्ट्रपति कार्यालय शीतल निवास पहुंचे और संविधान के अनुच्छेद 76 (5) के अनुसार पुन: प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी पार्टी सीपीएन-यूएमएल के 121 सदस्यों और जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल (जेएसपी-एन) के 32 सांसदों के समर्थन के दावे वाला पत्र सौंपा। ओली ने जो पत्र सौंपा था, उसमें जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल के अध्यक्ष महंत ठाकुर और पार्टी के संसदीय दल के नेता राजेंद्र महतो के हस्ताक्षर थे। नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने भी 149 सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था। देउबा प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करने के लिए विपक्षी दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति के कार्यालय पहुंचे। एक तरफ सूची और दूसरी ओर प्रत्यक्ष समर्थन- इनमें से किसे वरीयता दी जाए, अगर इस पर भी विचार किया गया होता तो भी नेपाल की राजनीति इतनी बेहाल न होती।
मध्यावधि चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद बड़े राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री ओली और राष्ट्रपति भंडारी की उनके असंवैधानिक कदमों के लिए आलोचना की है। नेपाली कांग्रेस ने तो यहां तक कह दिया है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा संविधान का शोषण महंगा साबित होगा। माओइस्ट सेंटर के नेता वर्षा मान पुन ने कहा कि यह आधी रात को हुई लूट है। केपी ओली उन लोगों के लिए कठपुतली हैं जो हमारे संविधान को पसंद नहीं करते और यह लोकतंत्र तथा हमारे संविधान पर हमला है। नेपाली कांग्रेस तो राष्ट्रपति पर अपने कर्तव्यों को भूल जाने और संविधान को रौंदने तक का आरोप लगा रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि वह लोकतंत्र की रक्षा नहीं कर सकतीं। ओली ने 10 मई को दोबारा प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद घोषणा की थी कि वह संसद में विश्वासमत हासिल नहीं करना चाहते। इसके बाद राष्ट्रपति भंडारी ने संविधान के अनुच्छेद 76(5) का प्रयोग करते हुए अन्य नेताओं को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था। इसके लिए उन्होंने 24 घंटे का समय दिया था। इसके बाद एनसी के अध्यक्ष देउबा ने 149 सांसदों के समर्थन वाला पत्र सौंपकर प्रधानमंत्री पद के लिए दावा किया था। इसके बावजूद राष्ट्रपति भंडारी ने देउबा के सरकार बनाने के दावे को खारिज करते हुए ओली को ही प्रधानमंत्री पद पर बने रहने में मदद की। यह कदम न केवल असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है, बल्कि यह अनैतिक भी है।
संविधान निर्माण के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कुमार कोइराला को इस्तीफा देना पड़ा था और अन्य दलों के समर्थन से केपी शर्मा ओली नेपाल के प्रधानमंत्री बन गए थे। यह और बात है कि उनकी नीतियां समर्थक दलों को रास नहीं आई और उन्हें उनकी समर्थन वापसी के परिणाम स्वरूप इस्तीफा देना पड़ा था। तब भी इसके लिए उन्होंने भारत को जिम्मेदार ठहराया था। इसके बाद तो जब कभी उनकी सरकार पर संकट के बादल मंडराए, उन्होंने दोषारोपण भारत पर ही किया। 2017 में जब वे दोबारा प्रधानमंत्री बने थे तब भी वे भारत विरोधी लहर पर सवार थे और आज भी उनकी मनःस्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट पर चीन का समर्थन करने और नेपाली नक्शे में लिपुलेख, लिम्पियधुरा और कालापानी को शामिल करने, अयोध्या को नेपाल का गांव बताने वाले ओली को सच तो यह है कि कभी भारत रास नहीं आया। वे तो1950 में भारत और नेपाल के बीच हुई शांति और मित्रता संधि का भी मुखर विरोध करते रहे हैं।
जो वैचारिक स्तर पर इतना ढुलमुल हो कि अपनी गलतियों को छिपाने के लिए भारत पर दोषारोपण करता हो, ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में नेपाल का भी हित सुरक्षित नहीं है। नेपाल में मध्यावधि चुनाव होगा या अदालती हस्तक्षेप, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जिस तरह के वहां राजनीतिक हालात हैं, उसे गरिमापूर्ण तो नहीं ही कहा जाएगा।

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